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________________ मदिरा पान करने से होती है ऐसा कहा है । ऊपर लिखित अनुवाद में, जो कि मूल से बिल्कुल समानार्थक है, कोई भी बात सटीक नहीं है। तंत्र सम्प्रदाय की शिक्षाओं में संन्यास से कोई भी सामंजस्य नहीं है । तंत्र-मंत्र के समर्थक वर्ण व्यवस्था, वैदिक कर्मकाण्ड और परम्पराओं को प्रोत्साहन नहीं देते थे। कवि राजशेखर का विवाह स्वयं एक क्षत्रीय कन्या से हुआ था। यदि राजशेखर ब्राह्मण रहे हो, तो विवाह तांत्रिक ढंग से हुआ होगा या यह विवाह अनुलोम हुआ होगा । इस तरह मालूम पड़ता है कि भैरबानन्द के कथन के पीछे कोई पूर्ण-पद्धति छिपी हुई है। उसके शब्द प्रत्यक्ष रूप में अनैतिक मालूम पड़ते हैं, लेकिन उनमें दुहरा अभिप्राय छिपा हुआ है और नाटक में दर्शकों की अनुरक्ति पैदा करने के लिए है । इन सब बातों से तंत्र सम्प्रदाय के अध्ययन में बड़ी सहायता मिलती निष्कर्ष :-इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आचार्य राजशेखर की कर्पूरमंजरी से प्राप्त सांस्कृतिक तत्त्वों एवं ऐतिहासिक तथ्यों की पृष्ठ भूमि एक सुस्पष्ट चित्र प्रस्तुत करती है। उस समय संस्कृति की दो मुख्य धाराएं साथ-साथ प्रवाहित हो रही थीं-एक क्षेत्रीय और दूसरी राष्ट्रीय । यद्यपि भारत के विभिन्न क्षेत्रों की भाषाएं भिन्न-भिन्न थीं, परन्तु भारतीय स्तर पर उनकी संपर्क भाषा सुसंस्कृत थी । धार्मिक दृष्टि से इस युग में सभी एक दूसरे के संप्रदाय के प्रति सम्मान का भाव व्यक्त करते थे। आचार्य द्वारा लिखित कर्पूरमंजरी सट्टक में घटनाओं का सूत्र संचालन एक तांत्रिक के द्वारा कराया गया है, अर्थात् तंत्र-मंत्र और धार्मिक अन्धविश्वासों का बोलबाला था । इसके अतिरिक्त प्रेम और शृंगार संसार में भी तांत्रिकों का प्रवेश सुलभ हो गया था। प्रेमिकाओं को प्रेम या व्यक्तिगत गुणों से वश में करने की अपेक्षा भयंकर तांत्रिक एवं उनकी अप्राकृतिक तांत्रिक प्रक्रियाओं को काम में लाने की प्रथा चल पड़ी थी, इसके साथ ही लड़ाइयों में पुरुषार्थ की अपेक्षा तांत्रित शास्त्रों पर विशेष विश्वास किया जाने लगा था। "कर्पूरमंजरी" में उपस्थित भैरवानन्द जैसे तांत्रिकों तथा उनके द्वारा प्रचारित नग्नकोल धर्म का कुप्रभाव धीरे-धीरे संपूर्ण समाज पर बढ़ता गया, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक आचरण और नैतिक मूल्यों में गिरावट शुरू हो गई। लोगों की आसक्ति सुरा-सुन्दरी की उपासना में बढ़ने लगी । उदात्त राष्ट्रीय भावनाएं सोने लगी और उन्नत धार्मिक आदर्श मुरझाने लगे। मंदिरों की भित्तियों पर नग्नचित्रों का अंकन भी आरम्भ हो गया। आचार्य ने संस्कृत के समान ही प्राकृत, अपभ्रंश पैशाची आदि सभी क्षेत्रीय भाषाओं में श्रद्धा व्यक्त की है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कर्पूरमंजरी के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का विशेष महत्व है। १२४ तुलसी प्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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