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________________ अनुसार पांच स्थावर जीवों-पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा एवं वनस्पति की भी हिंसा नहीं होनी चाहिये । अहिंसा मुख्य आधार है । जैन धर्म जीवन का अस्तित्व केवल आदमियों, पशुओं एवं कीड़ों, मकोड़ों में ही नहीं मानता अपितु पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा एवं वनस्पति में भी मानता है । हमको किसी के जीवन-मरण के साथ नहीं जुड़ना चाहिये। जैन धर्म द्रव्य-हिंसा, भाव-हिंसा एवं काय-हिंसा को गलत मानता है। जैन साधना पद्धति असंदिग्ध रूप से एक ऐसी साधना पद्धति है जो प्रकृति के संतुलन में जरा भी बाधक नहीं बनती। जैन धर्म प्रदूषण का नितांत निषेधक है । धर्म के अनुसार शरीर स्वस्थ एवं आवेगमुक्त होना चाहिये। जैन धर्म आत्म-विज्ञान है ! इस प्रकार यह धर्म एक आचार पद्धति है। हर आचार पहिले विचार होता है इसलिये विचार की शुद्धि परम आवश्यक है। धर्म विशुद्ध चेतना है और वह चेतना से उत्पन्न होता है । भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत बहुत ही गूढ़, गंभीर एवं ग्राह्य है। जैन जीवन सादा, सरल एवं सपाट है । इसमें विविधताओं को कोई स्थान प्राप्त नहीं है । इसीलिये कहा गया है कि "कर्मान्तरायान् जयतीति जिनः" अर्थात जो कर्म रूपी शत्रुओं को जीत लेता है वह जिन है तथा जिनो देवता अस्येति जैन: अर्थात् उसके उपासक जैन हैं । धर्म के बारे में कहा जाता है कि "संसार दुःख तप्तान् सत्त्वान् यो उत्तमे सुखे धरतीति-धर्मः" अर्थात् जो संसार के दुःखों से जीवों को निकालकर उत्तम सुख में पहुंचा दे वही धर्म है । इस प्रकार ब्रह्मांड पर सभी स्थावर एवं अस्थावर जीवों की हिंसा का इस धर्म में निषेध है। रागादि भावों की उत्पत्ति ही एक प्रकार की हिंसा है। काय-हिंसा में पृथ्वी, एवं वनस्पति को एक इन्द्रिय जीव मानकर इनकी सुरक्षा करना धर्म है। इसीलिये कहा गया है 'धर्मस्य मूलंदया" अर्थात् दया धर्म की जड़ है। जैन धर्म में भगवान् महावीर ने वनस्पति की हिंसा, वायुकायिक हिंसा, तेजसकाय हिंसा (धूम्रपान से), अग्निकाय जीव-हिंसा, पृथ्वीकाय हिंसा आदि का वर्णन बड़े ही अच्छे ढंग से किया है। भगवान् महावीर ने शोर-प्रदूषण का उल्लेख (आचरांग ४-५१ में) "जं सम्मति पासह तं मोणांति परसह" जैसे शब्दों से किया है जिसका अर्थ मौन ही सत्य है । धर्म में पांच महाव्रतों (अहिंसा, अचौर्य, असत्य, अपरिग्रह, एवं ब्रह्मचर्य पालन) । दसधर्म (क्षमा, संयम, तप, त्याग, शौच आदि) एवं सोलह कारण भावनाओं के अनुसरण पर जोर दिया गया है । अहिंसा विश्व शांति का आधार है । स्वामी समन्तभद्र के अनुसार ,,अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्" अर्थात् समाज एवं व्यक्ति के जीवन का प्रधान अबलम्बन अहिंसा है ।अहिंसा आत्मा का स्वभाव है इसलिये आत्मा को जानने की कोशिश स्वाध्याय से करें। अहिंसा के सिद्धांतों पर कार्यरत होने से दलाईलामा को सन् १९८९ में नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया है। पिछले पांच छः दशकों के दौरान विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी से आधुनिक भोगवादी सभ्यता को प्रोत्साहन मिला जिससे मानव के दृष्टिकोण में प्रकृति एवं अन्य जीवों के प्रति एक बुनियादी परिवर्तन ला दिया है । प्रकृति अब पूज्य एवं सहभागी न होकर एक संसाधन मात्र रह गयी है एवं मनुष्य उसका स्वामी बन गया है । उसने प्रकृति पर काबू पाने की शक्ति एवं साधन जुटा लिये हैं एवं अपने आपको अन्य जीव जन्तुओं से खण्ड २२, अंक २ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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