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________________ महाप्रज्ञ हो, महाप्रज्ञ जैसा मनुष्य जो नहीं है, वैसा होने का भ्रम पालता है या अभिनय करता है। वह अपनी मौलिकता को खूटी पर टांग देता है और नए-नए मुखौटे पहनकर समाज में प्रतिष्ठित होना चाहता है । यह एक प्रकार की मृगतृष्णा है । अपने बारे में प्रशंसा के दो बोल सुनकर मनुष्य सोचता है कि वह बहुत बड़ा आदमी बन गया है। किसी दूसरे के बटखरों से स्वयं को तोलना अपनी निजता को भूलना है। कुछ लोगों का अभिमत है कि आज मौलिकता केवल मिथ बन कर रह गयी है, किन्तु यह कथन भी एकांगी है । कोई भी कालखण्ड ऐसा नहीं होता, जब मनुष्य की मौलिकता को उससे छीना जाता हो। उसकी स्वयं के प्रति अप्रतिबद्धता ही उसे दूसरे जैसा होने की दिशा में अग्रसर करती है। महाप्रज्ञ के चिन्तन और साहित्य से जो लोग परिचित हैं, वे इनके बारे में अनेक प्रकार की कल्पनाएं करते हैं। कुछ लोग कहते हैं -महाप्रज्ञजी दूसरे विवेकानन्द हैं । कुछ व्यक्ति इनकी दार्शनिक गम्भीरता देखकर सर्वपल्ली डा० राधाकृष्णन् के साथ इनकी तुलना करते हैं । विवेकानन्द और राधाकृष्णन् भारत की महान् विभूतियां हुई हैं। उनके प्रति हमारे मन में आदर के भाव हैं, किन्तु तुलना के प्रसंग में मेरा यह चिन्तन है कि महाप्रज्ञ को न विवेकानन्द बनना है और न राधाकृष्णन् । महाप्रज्ञ कैसा ? महाप्रज्ञ जैसा । इस अवधारणा में मुझे संतोष मिलता है । दो हाथों और दस अंगुलियों पर विश्वास करने वाला व्यक्ति किसी की अनुकृति क्यों बनें ? उसे अपने ढंग से अपने व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहिए । इसलिए महाप्रज्ञ को महाप्रज्ञ ही बने रहना है। --गणाधिपति तुलसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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