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________________ श्रुत परम्परा E] मुनिश्री कामकुमार नन्दी भावश्रुत एवं द्रव्यश्रुत के भेद से श्रुत दो प्रकार के हैं। इनमें भाव की अपेक्षा श्रुत अनादि निधन है (न कभी उत्पन्न हुआ और न कभी विनष्ट होगा) पर द्रव्यश्रुतशास्त्र परम्परा कालाश्रित है । वह योग्य द्रव्य क्षेत्र काल में ज्ञानी, निर्ग्रन्थ, वीतरागी सन्तों द्वारा ज्ञान की प्रकर्षता में तथा बाह्य निविघ्नताओं में शास्त्र रचना के रूप में उत्पन्न भी होता है और ज्ञान की अप्रकर्षता तथा बाह्य विघ्न बाधाओं के कारण विनाश को भी प्राप्त होता है। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन (वर्तमान में जो वीरशासन जयन्ती के रूप में महान् पर्व माना जाता है) सूर्य के उदय होने पर रौद्र नामक मुहूर्त में चन्द्रमा के अभिजित् नक्षत्र पर होने पर तीनों लोकों के गुरु वर्द्धमान महावीर के धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई अर्थात् पंच पर्वतों से शोभायमान राजगृही नगरी के पास देव-दानवों से पूजित और सर्व पर्वतों में उत्तम एवं अत्यन्त चित्ताकर्षक विपुलाचल नामक पर्वत पर भगवान् महावीर ने भव्य जीवों को जीवादि पदार्थों का प्रथम उपदेश दिया। भगवान् महावीर स्वामी का विश्वविख्यात राजगही में विपुलाचल पर्वत पर १६ वार समवशरण हुआ था। इससे पूर्व बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ भगवान् के जन्म के कारण भी यह पञ्चशैलपुर-राजगिरि पवित्र है। पञ्चशैलपुरं पूतं मुनिसुव्रतजन्मना । -हरिवंश पु० में जिनसेनाचार्य गौतमगोत्री विप्रवर्णी चारों वेदों और षडंग विद्या के पारगामी शीलवान और ब्राह्मणों में श्रेष्ठ वर्द्धमान स्वामी के प्रथम गणधर इन्द्रभूति नाम से प्रसिद्ध हुए। भावश्रुत पर्याय से परिणत इस इन्द्रभूति ने अन्तर्मुहूर्त में बारह अंग और चौदह पूर्व ग्रन्थों की क्रमशः रचना की। अतः भावश्रुत और अर्थ-~-पदों के कर्ता तीर्थंकर हैं तथा तीर्थकर के निमित्त को पाकर गौतम गणधर श्रुतपर्याय से परिणत हुए । इसलिये द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं । यथा--- "श्रुतमपि जिनवरविहितं गणधर-रचितं द्वचनेक-भेदस्थम् ।" इस भरतखण्ड के आर्य प्रदेश के अनेक जनपदों में विहार करके जब चतुर्थकाल में साढ़े तीन मास कम चार वर्ष शेष रह गये तब कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी में (रात्रि के अन्तिम प्रहर में) कमल वनों से वेष्टित पावापुर के बाहरी उद्यान में स्थित सरोवर से भगवान महावीर स्वामी मुक्ति को प्राप्त हुए। उसी समय गौतम गणधर केवलज्ञान से सम्पन्न हो गये तथा वे गौतम गणधर भी बारह वर्ष में मुक्त हो गये। जब खंडा २०, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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