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________________ नेहारम्भणचारोऽस्ति केवलोदीरणव्ययो । अनन्तश्वर्यसामर्थ्य स्वयं योगी प्रपद्यते ॥२८ 'ध्यान द्वात्रिंशिका" में निहित ध्यान-स्वरूप का यह शब्दानुसारी लघु निदर्शन है । अर्थानुसारी विवेचन अनुभूति, समय व विस्तार सापेक्ष होने से स्वयं साधक के लिए गम्य है । वस्तुतः प्रकृत "द्वात्रिशिका" में सिद्धसेन दिवाकर ने अपनी प्रतिभा से सूत्र शैली में ध्यान के विराट दर्शन को अभिव्यक्त किया है। प्रस्तुत लेख उसकी प्रस्तुति का अतिलघु प्रयत्न मात्र है। । संदर्भ सूची १. अनुयोग द्वार, सू० ७/१ २. ध्याद-द्वात्रिंशिका, श्लो० ३ ३. वही, श्लो० २२ ४. पातंजलयोग दर्शनम्, २/२९ ५. वही, २/३० ६. ध्यान-द्वात्रिंशिका, श्लो० १८ ७. पातंजल योग, २/३२ ८. ध्यान द्वात्रिंशिका, श्लो० १९ ९. वही, श्लो० १९ १०. तत्त्वार्थ सूत्र, ९/२७ ११. पातंजल, २/४६ १२. ध्यान-द्वात्रिंशिका, श्लो० २३ १३. वही, १/२४ १४. अभिधान चिंतामणि, १/८३ १५. वही, १/८४ १६. ध्यान-द्वात्रिंशिका, श्लो० २५ १७. वही, श्लो० २७ १८. वही, श्लो० ३२ १९. पातंजल, ३/३ २०. ध्यान-द्वात्रिंशिका, श्लो० ३३ २१. वही, श्लो० २३ २२. श्रीमत् भगवत् गीता, ६/११ २३. पातंजल योग, २/२८ २४. ध्यान-द्वात्रिंशिका, श्लो० २५ खण्ड १९, अंक ४ ३५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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