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________________ श्वेतांबर-परम्परा का चन्द्रकुल (चन्द्रगच्छ) और उसके प्रसिद्ध आचार्य o शिवप्रसाद निर्ग्रन्थ परम्परा के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चन्द्रकुल का स्थान प्रथम पंक्ति में है। परम्परानुसार आर्य वज्रसेन के चार शिष्यों-नागेन्द्र, चन्द्र, निर्वृत्ति और विद्याधर से उक्त नाम वाले चार कुलों का जन्म हुआ, किन्तु पर्युषणाकल्प अपरनाम कल्पसूत्र की स्थविरावली में चन्द्र और निर्वत्तिकूल उल्लेख न होने से यह माना जा सकता है कि ये दोनों कुल बाद में अस्तित्त्व में आये। चन्द्रकुल का सर्वप्रथम उल्लेख अकोटा से प्राप्त कुछ धातु प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों में प्राप्त होता है। डा० उमाकान्त पी० शाह ने लिपि एवं प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन के आधार पर उनमें से एक प्रतिमा का काल ईस्वी सन् की छठी शताब्दी निर्धारित किया है। चन्द्रकुल से समय-समय पर विभिन्न शाखाओं के रूप में अनेक गच्छों का प्रादुर्भाव हुआ, जैसे वि० सम्वत् ९९४ में चन्द्रकुल के एक आचार्य उद्योतनसूरि ने सर्वदेवसूरि सहित ८ शिष्यों का अर्बुद-मण्डल में स्थित धर्माण (ब्रह्माण-वर्तमान वरमाण) सन्निवेश में वट वृक्ष के नीचे आचार्य पद प्रदान किया। वट वृक्ष के कारण उनका शिष्य परिवार वटगच्छीय कहलाया। इसी प्रकार चन्द्रकुल के ही एक आचार्य प्रद्युम्नसूरि के प्रशिष्य और अभय देवसूरि (वावमहार्णव के रचनाकार) के शिष्य धनेश्वरसूरि; जो कि मुनि दीक्षा के पूर्व राजा थे, की शिष्यसन्तति राजगच्छीय कहलायी।' इसी प्रकार पूर्णतल्लगच्छ, सरवालगच्छ, पूर्णिमागच्छ, आगमिकगच्छ, पिप्पलगच्छ, खरतरगच्छ, तपागच्छ और अंचलगच्छ आदि का भी समय-समय पर विभिन्न कारणों से चन्द्रकुल की एक शाखा के रूप में जन्म हुआ। इनमें से खरतरगच्छ, तपागच्छ और अंचलगच्छ आज भी विद्यमान हैं। ईस्वी सन् की १२ वीं शताब्दी से नागेन्द्र, चन्द्र, निर्वृत्ति और विद्याधर ये चारों कुल गच्छों के रूप में उल्लिखित मिलते हैं। चन्द्रकुल से सम्बद्ध पर्याप्त संख्या में ग्रन्थप्रशस्तियां, पुस्तक प्रशस्तियां तथा प्रतिमालेख खण्ड १९, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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