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________________ सन्धि के स्वरूप के विषय में भी नाट्यदर्पणकार के विचार सर्वथा मौलिक एवं उपादेय हैं। धनञ्जय आदि ने बीज आदि पांच अर्थप्रकृतियों का आरम्भादि पांच अवस्थाओं के साथ यथाक्रम' योग होने पर क्रमश: मुख आदि पांच सन्धियों का आविर्भाव माना है । जबकि नाट्यदर्पणकार की दृष्टि में संधि पञ्चक के लिए अवस्थापञ्चक का उपनिबन्धन तो आवश्यक है, परन्तु अर्थप्रकृतियों का नहीं। ये पांचों सन्धियां आरम्भादि अवस्थाओं से अनुगत रहती हैं । वस्तुतः यदि धनञ्जय आदि के मत को मान लिया जाय तो अनेक विप्रतिपत्तियां आ सकती हैं। उनके सिद्धांत के अनुसार गर्भ सन्धि में पताका नामक अर्थप्रकृति एवं प्राप्त्याशा नामक अवस्था होनी चाहिए। परन्तु पताका की स्थिति वैकल्पिक होती है, जिसे स्वयं धनञ्जय ने भी स्वीकार किया है । जब गर्भ सन्धि के लिए पताका का प्रयोग ही आवश्यक नहीं है, तब अर्थप्रकृतियों एवं अवस्थाओं के योग से सन्धियों के अविर्भाव होने का सिद्धांत ही दुर्बल हो जाता है। धनञ्जय के अनुसार पताका के बाद प्रकरी आती है, परन्तु रामकथा में सुग्रीव वृत्त पताका के पूर्व ही शबरी एवं जटायु वृत्त रूप प्रकरी का प्रयोग हुआ है। ऐसी स्थिति में सन्धियों के अन्तर्गत अर्थप्रकृतियां एवं अवस्थाओं का क्रमशः सम्बन्ध कैसे सम्भव है । इसके अतिरिक्त रूपक में पताका और प्रकरी का प्रयोग भी नितान्त आवश्यक नहीं है क्योंकि इन दोनों के अभाव में भी रूपक-रचना हो सकती है। वस्तुतः जहां नायक को इस प्रकार के सहायक की अपेक्षा रहती है केवल वहीं पर पताका और प्रकरी की योजना की जाती है । जब इन अर्थप्रकृतियों का प्रयोग ही अनिवार्य नहीं है, तब इन्हें सन्धि के लिए आवश्यक कैसे माना जा सकता है ? अतः स्पष्ट है कि संधियों के लिए अर्थप्रकृतियों का सन्निवेश आवश्यक नहीं है। इस संदर्भ में नाट्यदर्पणकार का मत ही अधिक समीचीन प्रतीत होता है कि सन्धियां आरम्भादि अवस्थाओं का अनुगमन करती हैं और उन्हीं के अनुसार क्रमशः मुखादि पांच सन्धियां होती हैं । प्रतिमुख सन्धि के लक्षण में भी उन्होंने कुछ मौलिक उद्भावनायें व्यक्त की हैं। धनञ्जय प्रभृति आचायों के अनुसार जहां बीज का कुछ लक्ष्य रूप में और कुछ अलक्ष्य रूप में उभेद होता है, वहां प्रतिमुख संधि होती है। जबकि नाट्यदर्पणकार की दृष्टि में मुखसन्धि में गढ़ रूप से स्थापित जो बीज कभी लक्ष्य और अलक्ष्य रूप से था, उसी का जहां उद्घाटन या प्रबल रूप से प्रकाशन होता है, वहां प्रतिमुखसन्धि होती है । यहां स्पष्ट हैं कि धनञ्जय ने बीज के लक्ष्यालक्ष्य रूप को प्रतिमुख सन्धि में माना है, जबकि नाट्यदर्पणकार की दृष्टि में बीज की यह स्थिति मुखसन्धि में होती है, न कि प्रतिमुख सन्धि में। उनकी दृष्टि में तो प्रतिमुख २९८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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