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नाट्य-सिद्धान्त से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दावली के लक्षण एवं उदाहरण प्रस्तुत करने में भी नाट्यदर्पणकार की मौलिकता नितांत उल्लेखनीय है। वे किसी विषय को पहले सूत्ररूप में प्रस्तुत करते हैं और बाद में वृत्ति के अन्तर्गत उसकी विशद व्याख्या करते हुए विषयगत गूढ़ता को पूर्णतः स्पष्ट कर जनसाधारण के लिए भी सुबोध बना देते हैं । यह तथ्य अङ्क के लक्षण से पूर्णतः स्पष्ट है। भारत के अनुसार अङ्क रूढ़ि शब्द है। यह भावों एवं रसों द्वारा नाट्यार्थों को संवर्धित करता है। इसमें नाना प्रकार के विधानों का योग भी रहता है। इसीलिए यह 'अङ्क' कहलाता है। इस परिभाषा से अङ्क का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट नहीं होता है। अन्य आचार्यों द्वारा प्रस्तुत अङ्क का लक्षण भी अपर्याप्त एवं अस्पष्ट है। नाट्यदर्पणकार का अङ्क-लक्षण अवश्य ही अधिक स्पष्ट एवं बोधगम्य है--
अवस्थायाः समाप्तिर्वा छेदो वा कार्ययोगतः ।
अङ्कः सबिन्दुर्दश्यार्थः चतुर्यामो मुहूर्ततः ॥" अर्थात् कार्य की आरम्भादि रूप अवस्था की समाप्ति या कार्यवश असमाप्त अवस्था का भी विच्छेद, जो अग्रिम अङ्क की कथा के बीज या बिन्दु से युक्त हो और एक मुहूर्त (४८ मिनट) से लेकर चार प्रहर (१२ घंटे) तक के दृश्यार्थ से युक्त हो तो उसे अङ्क कहते हैं। परन्तु खेद का विषय है कि नाट्यदर्पणकार द्वारा प्रस्तुत यह लक्षण प्रत्येक दृष्टि से उपयुक्त एवं अनुकरणीय होते हुए भी परवर्ती आचार्यों द्वारा ग्राह्य नहीं हुआ। जबकि उन्होंने पूर्वाचार्यों द्वारा प्रस्तुत लक्षणों को स्वतन्त्र रीति से विचार करने एवं उसे व्यापक बनाने का भरपूर प्रयास किया है।
__ नाट्यदर्पणकार द्वारा प्रस्तुत विष्कंभक और प्रवेशक का लक्षण भी कुछ अंशों में मौलिक और उल्लेखनीय है। उन्होंने इन दोनों को 'अङ्कसन्धायक' और 'शक्यसन्धानातीतकालवान्' कहा है।९ अङ्कसन्धायक का अभिप्राय यह है कि यह दो अङ्कों के बीच के कथाभाग को जोड़कर कथासूत्र को अविच्छिन्न बनाता है। शक्यसन्धानातीतकालवान का अर्थ है कि विष्कंभक या प्रवेशक द्वारा जिन घटनाओं का वर्णन किया जाए, वे केवल उतनी ही प्राचीन होनी चाहिए, जितने का स्मरण सामान्य रूप से मनुष्य को रह सकता है । इस प्रकार विष्कंभक एवं प्रवेशक के लक्षणों में इन दो पदों को जोड़कर नाट्यदर्पणकार ने अपने मौलिक चिन्तन का जो परिचय दिया है, वह सर्वतोभावेन श्लाघ्य है।
अर्थोपक्षेपकों के प्रयोग के सन्दर्भ में उनके सुझाव नितान्त नवीन एवं उपयोगी हैं । उनके अनुसार बहुत और बहुकालव्यापी अर्थ के सूचनीय होने पर विष्कंभक और प्रवेशक का प्रयोग करना चाहिए। अल्प और अल्पकालीन अर्थ के सूच्य होने पर अङ्कास्य का, अल्पतर और अल्पतरकालीन
खण्ड १९, अंक ४
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