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________________ मरुस्थल जिसे कवि मरुस्थल की अपेक्षा स्वर्णस्थल कहना अधिक पसंद करते हैं। उसी भूमि का यथार्थ चित्रांकन रयणी रेणुकणां शशि किरणां चलकै जाणक चांदी रे मनहरणी धरणी यदि न हुवै अति आतप अरु आंधी रे ।' ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए मेवाड़ का क्षेत्र भी सामने आया। उसी मेवाड़ की धरती का चित्र--- "ऊंचा-उंना शिखरां स्यूं शिखरी सुहाणां शिखरों स्यूं हरित अपार ।। झर-झर झरता निर्भरणा, उज्ज्वल वरणां । किरणां दूधां री धार । बागां-बागां बड़भागां, कोयलियां कूजै । __गूंजै गह्वर-बिच शेर ।। लम्बी खोगालां नाला बाहला नै खाला । नदियां रो नहीं निवेर ॥४७ मध्यप्रदेश में बहती नदियों ने यहां आकार लिया है। "पर चंबल-जल-झलमल, मिलै व कूल किनार । टेढ़ बांक पिण झांकतां, लम्बाई अणपार ॥४८ संवेदनात्मक बिम्ब आन्तरिक भावों का चित्रण भी हमें यहां देखने को मिलता हैचिन्ता-भय-हर्ष आदि ऐसे ही भाव है । चिन्ता - चिता से घटित होने वाली पूरी स्थिति यहां स्पष्ट हुई है कालूगणि का स्वास्थ्य मंद होता जा रहा है और युवाचार्य तुलसी की चिन्ता यहां आकार ले रही है। "चंट-चुंट कर चींट्या ज्यं चिन्ता निशि वासर चोट करै। दिन की भूख-रात की निद्रा मूक, होंठ जुग मौन धरै ॥"४९ भय-बालक कालू जब तीन दिन के हुए थे। अचानक रात्रि में बालक कालू को ले जाने के लिए एक भयंकर दानव प्रकट होता है-दानव का भयंकर रूप भय को जन्म दे देता है। "दानव एक डरावणो परम भयंकर भास । कालो कज्जल सोदरु, घटा घनाघन घोर ।।" हर्ष-आचार्य पद प्राप्त कर अपनी जन्मभूमि छापर में पधारते है तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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