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________________ एकान्त करते हैं । उनके मत का निषेध करने हेतु वस्तु के स्वरूप को समान्य विशेषात्मक कहा गया है अतः चेतना को भी सामान्य विशेष रूप स्वीकार करना चाहिए ऐसा बतयागया है । कोई एकान्तवादी सर्वथा एकान्त से कर्म का कर्ता कर्म को ही कहते हैं ओर आत्मा को अकर्ता कहते हैं वे आत्मा के स्वरूप के घातक है । जिनवाणी स्याद्वाद द्वारा वस्तु को निर्बाध कहती है । वह वाणी आत्मा कों कथंचित् कर्ता कहती है सो सर्वथा एकान्तियों पर वाणी का कोप है। उनकी बुद्धि मिथ्यात्व से ढक रही है । उनके मिथ्यात्व को दूर करने के लिए आचार्य कहते हैं कि स्याद्वाद से जैसी वस्तु की सिद्धि होती है वैसी कहते हैं ।" वे कहते हैं कि आत्मा को सांख्य मत के समान सर्वथां अकर्ता नहीं मानना चाहिए । भेदज्ञान होने से पूर्व निरन्तर कर्ता मानों और उसके पश्चात् उद्धत ज्ञानधाम में निश्चित् इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्मा को अकर्ता, अचल और परम ज्ञाता ही मानना चाहिए । सर्वथा अकर्ता मानने से पुरुष के संसार का अभाव आता है । प्रकृति को संसार माना जाये तो प्रकृति जड़ है उसके सुख दुःख का संवेदन नहीं है । इसलिए किसका सार ? इत्यादि दोष आते हैं क्योंकि वस्तु का स्वरूप सर्वथा एकान्त नही । आचार्य उपदेश देते हैं कि जहां तक आप और पर का भेद विज्ञान न हो तब तक तो रागादिक अपने चेतनरूप भावकर्मों का कर्ता मानों । भेद विज्ञान के पश्चात् शुद्ध विज्ञानधन समस्त कर्तापन के भाव से रहित एक ज्ञाता ही मानों । इस तरह एक ही आत्मा में कर्ता, अकर्ता दोनों भाव विवक्षावश सिद्ध होते हैं । ऐसा मानने से पुरुष के संसार, मोक्ष आदि की सिद्धि होती है ।" के पचास्तिकाय में सत्ता के स्वरूप विषय में आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि अस्तित्व स्वरूप एक है, समस्त पदार्थों में स्थित है, नाना प्रकार के स्वरूपों से संयुक्त है, अनन्त है परिणाम अनन्त परिणाम वाली है, उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप एवं प्रतिपक्ष संयुक्त है १८ जो अस्तित्ववान् है । वही सत्ता है जो सतावान है वही वस्तु है । वस्तु निन्यानित्यात्मक है । यदि वस्तु को सर्वथा नित्य ही माना जाये तो सत्ता का विनाश हो जाये । क्योंकि नित्य वस्तु में क्षणवर्ती पर्याय के अभाव से परिणाम का अभाव होता है, परिणाम के बिना वस्तु का अभाव होता है । जैसे मृत्पिंडादिक पर्यायों के नाश होने से मृत्तिका का नाश होता है । कदाचित् वस्तु को क्षणिक ही माना जाये तो यह वस्तु वही है जो मैंने पहले देखी थी इस प्रकार से ज्ञान के नाश होने से वस्तु का अभाव हो जाएगा । इस कारण यह वस्तु वही है जो मैंने पहले देखी थी । ऐसे ज्ञान के निमित्त वस्तु को घ्रौव्य मानना योग्य है । जैसे बालक, युवा, वृद्धावस्था में पुरुष वही नित्य रहता है उसी प्रकार अनेक पर्यायों में द्रव्य नित्य है इस कारण वस्तु नित्यानित्य स्वरूप है । वस्तु उत्पाद-व्यय खण्ड १९, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only ६३ www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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