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________________ मुहुत्तेण" रूप में रखा गया है । अर्थ दोनों गाथाओं के समान हैं । ये दोनों आचार्य प्राकृत भाषा के समर्थ रचनाकार हैं। दोनों का प्रतिपाद्य भी प्राय: समान है और रचनाकाल के समय में भी अधिक अन्तर नहीं है । अतः शिवार्य का कुन्दकुन्द के साहित्य से प्रभावित होना अस्वाभाविक नहीं है। ४. समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड-श्रावकाचार : आचार्य कुन्दकुन्द का प्रतिपाद्य यद्यपि श्रमणाचार था, फिर भी उन्होंने अपने रयणसार में जैन श्रावकों के लिए कई नियमों का विधान किया है। प्राचीन श्रावकाचारों में समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार प्रमुख है। इस संस्कृत कृति में कुन्दकुन्द के प्राकृत रयणसार का प्रभाव यत्रतत्र उपलब्ध है। आचार्य श्री विद्यानन्दजी ने इसे स्पष्ट भी किया है। "रत्नकरण्ड' नाम भी "रयणसार" का ही रूपान्तरण प्रतीत होता है। विषयवस्तु का सूक्ष्म तुलनात्मक अध्ययन इस दिशा में उपयोगी होगा। कुन्दकुन्द के प्रवचनसार १.४६ गाथा और समन्तभद्र के स्वयम्भूस्तोत्र श्लोक १४ का भाव अनेकान्तदृष्टि की पुष्टि करने वाला है । अन्य सैद्धांतिक मतों के प्रतिपादन में भी समानता खोजी जा सकती है। ५. सिद्धसेन दिवाकरकृत सन्मति-प्रकरण : सिद्धसेन दिवाकर नयवाद-विवेचन एवं अध्यात्म के समर्थ आचार्य हैं। उनकी रचनाओं में सन्मति-प्रकरण या सम्मइसुत्तं एक दार्शनिक कृति है। इसके सम्पादकों ने स्पष्ट रूप से आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं का विभिन्न प्रकार से सिद्धसेन पर प्रभाव स्वीकार किया है। कुन्दकुन्द के समयसार (१.१३) में जो श्रद्धा, दर्शन और ज्ञान के ऐक्यवाद की स्वीकृति है वही भाव सन्मतिप्रकरण (व्या. २ गाथा ३२) में उपलब्ध है । कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार में जिस ढंग से द्रव्य का विवेचन किया है, सिद्धसेन ने सन्मतिसूत्र के तृतीय काण्ड में ज्ञेय की व्याख्या उसी अनेकान्तिक दृष्टि से की है। दोनों के ग्रन्थों की गाथा संख्या १ का पूर्वार्ध लगभग समान है। यथा-- पंचास्तिकाय ---पज्जवविजुदं दव्वं दवविजुता य पज्जया णत्यि । सन्मति प्र.---दव्वं पज्जवविउयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णस्थि ।। डा. देवेन्द कुमार शास्त्री ने अपनी प्रस्तावना में स्पष्ट किया है आचार्य कुन्दकुन्द के अष्टपाहुड में ऐसे कई उद्धरण मिलते हैं जो न केवल शब्दों में, पदों में, वरन् वाक्य रचना में भी सन्मतिसूत्र से समानता प्रकट करते हैं। अन्य ग्रन्थों की गाथाएं भी तुलनीय हैं । यथा१. नियमसार-गा. १६६, १५९, १६९, १४, १६० आदि । सन्मति सूत्र-२.४, २.३०, २.१५, २.२०, २.३ आदि । खण्ड १९, अंक २ ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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