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________________ होती है तो उससे न तो सर्वज्ञ की सर्वज्ञता पर आंच आती है और न जैन धर्म की आध्यात्मशास्त्रीय, तत्व मीमांसीय एवं आचार शास्त्रीय अवधारणाओं पर कोई खरोंच आती है । सूर्यप्रज्ञप्ति जैसा ग्रन्थ जिसमें जैन आचारशास्त्र और उसकी अहिंसक निष्ठा के विरुद्ध प्रतिपादन पाये जाते हैं, किसी भी स्थिति में सर्वज्ञ प्रणीत नहीं माना जा सकता है। जो लोग खगोलभूगोल सम्बन्धी वैज्ञानिक तथ्यों को केवल इसलिए स्वीकार करने से कतराते हैं कि इससे सर्वज्ञ की अवहेलना होगी, वे वस्तुतः जैन आध्यात्म शास्त्र के रहस्यों से या तो अनभिज्ञ हैं या उनकी अनुभूति से रहित हैं। क्योंकि हमें सर्वप्रथम तो यह स्मरण रखना होगा कि जो सर्वज प्रणीत है ही नहीं उसके अमान्य होने से सर्वज्ञ की सर्वज्ञता कैसे खण्डित हो सकती है । आचार्य कुन्द-कुन्द ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि सर्वज्ञ आत्मा को जानता है, यही यथार्थ सत्य है । सर्वज्ञ बाह्य जगत् को जानता है यह केवल व्यवहार है । भगवतीसूत्र का यह कथन भी कि 'केवली सिय जाणई सिय ण जाणई'इस सत्य को उद्घाटित करता है कि सर्वज्ञ आत्म द्रष्टा होता है। वस्तुतः सर्वज्ञ का उपदेश भी आत्मानुभूति और आत्म विशुद्धि के लिए होता है । जिन साधनों से हम शुद्धात्मा की अनुभूति कर सकें, आत्म शुद्धि या आत्म विमुक्ति को उपलब्ध कर सकें, वही सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपाद्य है। __ यह सत्य है कि आगमों के रूप में हमारे पास जो कुछ उपलब्ध हैं उसमें जिन वचन भी संकलित हैं और यह भी सत्य है कि आगमों का और उनमें उपलब्ध सामग्रियों का जैन-धर्म, प्राकृत साहित्य और भारतीय इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्व है। फिर भी हमें यह स्मरण रखना होगा कि आगमों के नाम पर हमारे पास जो कुछ उपलब्ध है, उसमें पर्याप्त विस्मरण, परिवर्तन, परिवर्धन और प्रक्षेपण भी हुआ है। अतः इस तथ्य को स्वयं अन्तिम वाचनाकार देवद्धि ने भी स्वीकार किया है। अतः आगम वचनों में कितना अंश जिन वचन है- इस सम्बन्ध में पर्याप्त समीक्षा, सर्तकता और सावधानी आवश्यक है। आज दो प्रकार की अतियां देखने में आती है—एक अति यह है कि चाहे पन्द्रहवीं शदी के लेखक ने महावीर-गौतम के संवाद के रूप में किसी ग्रन्थ की रचना की ही, उसे भी बिना समीक्षा के जिन वचन के रूप में मान्य किया जा रहा है और उसे ही चरम सत्य माना जाता है—दूसरी ओर सम्पूर्ण आगम साहित्य को अन्धविश्वास कहकर नकारा जा रहा है। आज आवश्यकता है नीर-क्षीर बुद्धि से आगम वचनों की समीक्षा करके मध्यम मार्ग अपनाने की। अनेक आगम वचन या सूत्र ऐसे हैं, जो कल तक अवैज्ञानिक प्रतीत २४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524575
Book TitleTulsi Prajna 1993 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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