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________________ करने लगता है और बाह्य जगत् की तरह उसकी दृष्टि अन्तर जगत् की ओर जाती है । अन्तर जगत् में सत्य के शोध को ही आत्मज्ञान कहते हैं । वैज्ञानिक लोग वाह्य जगत् की शोध में लगे हैं । एलीमेंटरी पार्टिकल से लेकर 'कास्मोलाजी' तक के परीक्षण और संशोधन बड़े वेग से कर रहे हैं। ज्यों-ज्यों शोध, संशोधन और परीक्षण होते जा रहे हैं और नये नये पदार्थों, द्रव्यों, शक्तियों और क्षेत्रों का ज्ञान मिलता जा रहा है त्यों-त्यों उनके सामने अज्ञात क्षेत्रों का नया दालान खुलता जा रहा है । तिस पर भी वैज्ञानिक को अपने प्रयोग से जो प्रत्यक्ष (फिनिट) ज्ञान होता है उसी को वह अन्तिम (अल्टीमेट) मानता है। उसके अतिरिक्त न वह जानता है और न है। उसने नम्रतापूर्वक अपनी यह सीमा मान ली है और उस मर्यादा में वह अनाग्रह भाव से सत्य की खोज करता रहता है। प्राप्त ज्ञान का विश्लेषण और वेरीफिकेशन (जांच) कर सकता है। इसलिए वह ज्ञान आब्जेक्टिव (प्रत्यक्ष) और यूनिवर्सल होता है । विज्ञान ने अब सिद्ध कर दिया है कि सृष्टि में दिखाई देने वाले भिन्न-भिन्न पदार्थ एक ही शक्ति द्रव्य (इलेवट्रांस, पोट्रांस, न्यूट्रांस) के बने हैं। इसलिए बाह्य सृष्टि में मूलत: एक ही शक्ति द्रव्य है और वह भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त हुआ है । इस तरह विज्ञान ने बाहरी जगत् में एकता स्थापित की है । आगे वह शोध करते-करते उस सूक्ष्म तत्व की ओर भी बढ़ेगा और उसकी एकता का अनुभव भी प्रत्यक्ष में स्पर्श करवाने का काम करेगा। __ अन्तर जगत् की खोज में जो प्रत्यक्ष दिखता है उसे वह अन्तिम (अल्टीमेट) नहीं समझता । प्रत्यक्ष को प्रारम्भ मानकर उसके मूल को पहचानने के लिए वह अधिक अन्तर्मुख होता है-जैसे मनुष्य अस्वस्थ होने पर उसे शरीर में बुखार, सिर में दर्द, आंख में भारीपन, स्मृति में विस्मरण और बुद्धि में शैथिल्य का अनुभव होने लगता है तो उसके ध्यान में आता है कि शरीर, सिर, आंख, स्मृति बुद्धि आदि वह नहीं है। वह इनसे भिन्न है जिसके कारण इन सबकी पहचान होती है और इनके सुख-दुःख की जानकारी होती है । इसलिए जो अनुभव करता है और उन सबको पहचानता है उसे आत्मा, ब्रह्म या जीवन का 'परम तत्व' मानता है और उस स्थिति तक पहुंचने के लिए सतत् जागरूक रहता है और वृत्ति संशोधन करता रहता है। चूंकि वृत्ति संशोधन में लगने वाले साधनों तथा माध्यमों की मर्यादाओं को वह जानता है इसलिए वृत्ति संशोधन से उपलब्ध ज्ञान को भी वह अन्तिम नहीं मानता। उसका बाह्य जीवन में प्रयोग करता है तथा सामाजिक जीवन में लागू करने का प्रयत्न करता है। उस व्यापक अनुभव और परीक्षण से अपने अन्तरज्ञान का निर्णय करता है । वह यह भी जानता है कि अन्तरजगत् की शोध प्रक्रिया में मन, बुद्धि और हृदय आदि ज्ञान प्राप्ति के साधनों तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524575
Book TitleTulsi Prajna 1993 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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