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अनेक धर्मों से युक्त है।
अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का स्वरूप प्राचीन आगमों में भी मिलता है । गणधर गौतम ज्ञातपुत्र महावीर से पूछते हैं। भंते ! आत्माज्ञानस्वरूप है या अज्ञानस्वरूप । महावीर उत्तर देते हैं--आत्मा नियम से ज्ञानस्वरूप है क्योंकि ज्ञान के बिना आत्मा की वृत्ति नहीं देखी जाती है। परन्तु आत्मा ज्ञान रूप भी है, अज्ञान रूप भी है :"गोदमा णाणे नियमा अतो ज्ञानं नियमादात्मनि ।"६ ज्ञात धर्म कथा एवं भगवती सूत्र में स्याद्वाद का विवेचन किया गया है । वस्तु को द्रव्य की अपेक्षा एक, ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा अनेक, किसी अपेक्षा से अस्ति, किसी से नास्ति और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य कहा है । भगवती में भगवान् का वचन है :
गोयमा, रयणप्पमा सिय आया, सिय नो आया।
सिय अवत्तन्वं आया तिय नो आया तिय ॥ सप्तभंगी और स्याद्वाद
प्रश्न के अनुसार एक वस्तु में प्रमाण से अविरुद्ध विधिप्रतिषेध धर्मों की कल्पना सप्तभंगी है—एकस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाद् दृष्टेनेष्टेन च प्रमाणेनाविरूद्धा विधिप्रतिषेध विकल्पना सप्तभंगी विज्ञेया। स्याद्वाद में सप्तभंग होते हैं :--स्यात् अस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यान्नास्ति अवक्तव्य और स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य ।
स्याद्वाद के सात भंगों का नामोल्लेख सर्वप्रथम आचार्य कुंदकुंद के 'पंचास्तिकाय' एवं 'प्रवचनसार' में मिलता है। इसके पूर्व सप्तभंगी नयवाद के रूप में या अधिक से अधिक स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्य इन तीन मूल भंगों के रूप में पाया जाता है। स्याद्वाद को विकसित करने वाले आचार्यों में चतुर्थ शताब्दी के विद्वान् सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र का नाम सबसे महत्त्वपूर्ण है । स्याद्वाद-जैनेतर दर्शन की दष्टि में
सर्वप्रथम विश्व के आद्यग्रंथ ऋग्वेद के 'नासदीय सूक्त' में स्याद्वाद जैसी अवधारणा मिलती है । ऋग्वेद का ऋषि कहता है :--'नासदासीन्न सदासीत्तदानीम् । अर्थात् उस समय सत् भी नहीं था और असत् भी नहीं था। अनेक उपनिषदों में भी इस तरह का सिद्धांत मिलता है। ईशावास्योपनिषद् में ऋषि कहता है-'तदेजति तन्नजति तद्रे तदन्तिके च'।" अर्थात् 'वह चलता है, नहीं भी चलता है, वह दूर है वह नजदीक भी है।' कठोपनिषद् में एक सूक्ति है--'अणोऽणीयान् महतो महीयान् ।१२ अर्थात् वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् है । प्रश्नोपनिषद् में-'सदसच्चामृतं च यत् । वह सत् असत् और अमृत स्वरूप वेदान्त प्रतिपादित ब्रह्म विविध विरोधी गुणों का आश्रय है।
अन्य भारतीय दार्शनिकों ने भी इस प्रकार के विचार अभिव्यक्त किए हैं । वेदान्त का अनिर्वचनीयवाद, कुमारिल का सापेक्षवाद, बौद्धों का मध्यम मार्ग आदि स्याद्वाद के समतुल्य विचारों का प्रतिपादन करते हैं ।१५ बौद्ध दर्शन के उदानसुत्त में
तुलसी प्रज्ञा