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जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय )
लाडनूं- ३४१३०६ ( राजस्थान )
नाणस्स सारं आयारो :
" ज्ञान का सार है आचार"- यही जैन विश्व भारती संस्थान का बोध वाक्य है । स्वामी विवेकानन्द एवं महात्मा गांधी ने भी शिक्षा का लक्ष्य "चरित्र निर्माण' ही बताया है । दुर्भाग्य से विभिन्न शिक्षा आयोगों एवं भारतीय संसद की एतद् विषयक समिति की अनुशंसाओं के बावजूद हम इस दिशा में अभी तक निष्क्रिय रहें हैं । फलस्वरूप शिक्षा समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करने के बदले स्वयं एक समस्या बन गई है । राष्ट्रीय जीवन में नैतिकता का चतुर्दिक अवमूल्यन हमारे अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा संकट है क्योंकि नैतिकता ही राष्ट्रीय जीवन की प्रतिरक्षा है । इसी को ध्यान में रखकर जैन विश्व भारती संस्थान इसे नैतिक एवं आध्यातिमक शिक्षा का एक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र के रूप में विकसित करना चाहता है ।
आचार्य देवो भव् !
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में शिक्षा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है । प्राचीन काल में ऋषिगण ही "गुरूकूल पद्धति' से शिक्षा-व्यवस्था का संचालन करते थे । आधुनिक युग में भी स्वामी दयानन्द ने गुरूकुल कांगड़ी, श्री अरविन्द ने आश्रम पद्धति, रवीन्द्रनाथ ने शांतिनिकेतन एवं महात्मा गांधी ने गुजरात विद्यापीठ जैसी संस्थाओं का निर्माण किया । आचार्य तुलसी ने भी इसी महान परम्परा के अनुसार १९७० में जैन विश्वभारती की स्थापना की जिसे १९९१ में भारत सरकार एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग्य ने मान्य विश्वविद्यालय घोषित कर दिया ।
ऐसे तो देश में लगभग १८२ विश्वविद्यालय हैं लेकिन जैन विश्वभारती अपने आप में एक नवीन विश्वविद्यालय है जहां शिक्षा केवल परीक्षा और डिग्री के लिए नहीं बल्कि मुख्यतः जीवन-निर्माण के लिए है ।
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं :
जैन धर्म भारत का अत्यन्त प्राचीन धर्म है । भगवान ऋषभदेव के नामों का वेद में भी उल्लेख है । जो भी हो महावीर एवं बुद्ध तो समकालीन थे ही । विभिन्न धार्मिक एवं सांस्कृतिक सम्प्रदायों के अपने-अपने विश्वविद्यालय बने । तक्षशिला, विक्रमशिला, नालन्दा, उदन्ती आदि अनेकों विद्यापीठ बने किन्तु जैन समाज अपनी
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