SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषयक ज्ञान पर तोष व्यक्त किया है ( पृ० १०) पुस्तक के पहले फ्लैप पर रत्नेशजी तथा दूसरे पर प्रभाजी के चित्र हैं और प्रतिभा जैन द्वारा आलंकारिक भाषा में उनका परिचय दिया गया है । इससे ज्ञात होता है कि दोनों लेखकों का डिग्री सापेक्ष अध्ययन है और ये पश्चिमी प्रयोग परक परामनोविज्ञान से जैन चितन के संकेतों को मिलाकर देखना चाहते हैं । ग्रन्थ में दी गई पादटिप्पणियों और संदर्भ ग्रन्थ-सूची को देखने से पता चलता है कि जैनदर्शन के मूल ग्रन्थों - आचारांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, नन्दीसूत्र आदि का उपयोग करके अपनी नदीष्ण विद्वता लेखकों ने पद-पद पर प्रमाणित की है । परन्तु एक 'मुनि' और 'साध्वी' से जिस मौलिक तत्त्वचिंतन की अपेक्षा रहती है, उसका यहां अभाव अवश्य खटकता है । जैसे पुनर्जन्म, प्रेतजीवन आदि पर लम्बी चर्चा करने के उपरान्त जब निष्कर्ष देना होता है तो लेखक किसी पश्चिमी विचारक के शब्द उद्धृत करके इतिकर्त्तव्य हो जाता है । पुस्तक की भूमिका डा० बुधमल शामसुखा, निदेशक, उत्तरजीविता एवं पुनर्जन्म शोध संस्थान नई दिल्ली ने लिखी है । उसमें परामनोविज्ञान की परिभाषा, विकासक्रम, प्रतिपाद्य विषय आदि की चर्चा की गई है । यूरोप में चल रहे परामनोवैज्ञानिक कार्यों का भी विवरण दिया है और जैनदर्शन की पौद्गलिक लब्धियों के प्रसंग में परामनोविज्ञान की सार्थकता भी प्रतिपादित की गई है । परामनोविज्ञान को संक्षेप में समझने के लिए यह भूमिका उपयोगी है । साथ ही, यह प्रस्तुत पुस्तक को आधारभूमि भी प्रदान करती है । प्रकृत ग्रंथ के पांच में से दो ( प्रथम एवं पंचम ) अध्याय साध्वी डॉ० प्रभाश्री तथा तीन (द्वितीय, तृतीय, चतुर्थं) अध्याय मुनि डा० रत्नेश ने लिखे हैं परन्तु विचारक्रम एवं प्रतिपादन शैली की एकरूपता कहीं भंग नहीं हुई है । दोनों लेखकों का युगपत् चिंतन और सहज अभिव्यक्ति सचमुच प्रशंसनीय हैं । प्रथम अध्याय में परामनोविज्ञान के वैज्ञानिक आधार की चर्चा करते हुए पश्चिमी हिप्नोटिज्म, टेलीपैथी आदि के आधार पर लेखिका ने परामनोविज्ञान के विविध प्रसिद्ध आयामों - पुनर्जन्म, प्रेतिकवाद, अतीन्द्रिय शक्ति एवं दूर बोध आदि पर प्रकाश डाला है और अगले अध्यायों में इन आयामों का विवेचन जैन चितन के अनुसार करने की प्रतिज्ञा की है । ( पृ० ४२ ) लेखिका मानती है, कि परामनोविज्ञान का महत्त्वपूर्ण आयाम पुनर्जन्म सिद्धांत वैज्ञानिकों के नजरिए के अनुसार स्वीकारा नहीं गया पर उसे नकारने का कोई आधार विज्ञान के पास नहीं है । ( पृ० ४२ ) इसलिए वह परामनोविज्ञान में पुनर्जन्म की अवधारणा पर बल देती है । दूसरे अध्याय में विस्तार से इस पर विचार हुआ है । जैन ग्रन्थों में आयु, मृत्यु, कर्म, पुनर्जन्म, जातिस्मरण आदि की व्यापक चर्चा है, उसे भी यहां साररूप में दिया गया है । तृतीय अध्याय में प्रेतजीवन का परिचय है । बौद्ध एवं जैन चिन्तनों में प्रेतों पर afro विश्वास है । जैन ग्रंथों में उनका वर्गविभाजन भी हुआ है । इन सब पर लेखक खंड १८, अंक ३ ( अक्टू० - दिस०, ९२ ) २६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy