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________________ प्रमाण-मीमांसा के परिप्रेक्ष्य में प्रमाण के लक्षण का विवेचन - कु० विनीता पाठक विशद् ज्ञान अपरोक्ष कहलाता है । इसके विपरीत अविशद ज्ञान को परोक्ष की संज्ञा दी गई है ।' स्मृति प्रत्यभिज्ञा, अह, अनुमान, आगम इसके भेद हैं। स्मृति को पृथक् प्रमाण के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है । क्योंकि इसका अन्तर्भाव प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों में नहीं हो सकता । स्मृति इसलिए अप्रमाण नहीं है कि इसमें भी किसी प्रकार का विसंवाद नहीं होता। वह भी अपूर्वार्थ ग्राही एवं बाधक रहित ज्ञान है जैसे अनुमानादि । जिनके मत में स्मृति प्रमाण नहीं है उनके यहां पूर्व ज्ञात साध्य-साधन सम्बन्ध और वाच्य-वाचक सम्बन्ध को अप्रमाणभूत् स्मरण से व्यवस्था न होने के कारण अनुमान और शब्द भी प्रमाण सिद्ध न हो सकेंगे। इस अवस्था में अनुमान और आगम से सिद्ध संवाद एवं असंवाद से प्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्षाभास की भी व्यवस्था नहीं होगी। फलस्वरूप सभी प्रमाणों का विलोप हो जाएगा। प्रमाण-व्यवस्था स्वीकार करने वाले सभी सम्प्रदायों को स्मृति को भी प्रमाण मानना आवश्यक है। स्मृति को प्रमाण रूप में ग्राह्य कर लेने पर अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाण संख्या का नियम सिद्ध नहीं होता । लेकिन जैन दार्शनिकों को मान्य प्रमाण के दो भेदों प्रत्यक्ष और परोक्ष का नियम स्वतः सिद्ध होता है क्योंकि उन में परोक्ष ऐसा व्यापक प्रमाण भेद है, जिसमें पर सापेक्ष होने वाले तर्क, प्राप्ति, प्रत्यभिज्ञा, स्मृति जैसे सभी प्रमाणों का समावेश सम्भव है।' ___मानव द्वारा जितने भी व्यवहार सम्पन्न होते हैं, उनके प्रति कारण है, बुद्धि । यह बुद्धिरूप ज्ञान दो प्रकार का होता है, प्रथमस्मृति दूसरा अनुभव रूप ।' संस्कारमात्र से उत्पन्न होने वाला जो स्मरण ज्ञान है, वही स्मृति कहा जाता है। स्मृति से जिस ज्ञान का उदय होता है, उसका विषय पूर्वज्ञात रहता है । स्मृति की यह विशेषता है कि वह किसी नए विषय को प्रकाशित नहीं करती वरन् जो ज्ञात विषय हमारे संस्कार में छिपे पड़े रहते है वहीं संस्कारों का उद्घाटन होने पर हमारे ज्ञान में प्रकाशित होने लगते हैं । इसीलिए संस्कार मात्र से उत्पन्न होने वाला ज्ञान स्मृति है, ऐसा कहा जाता है। स्मृति के लक्षण में संस्कार पद से भावना नामक संस्कार का ग्रहण किया गया है । मात्र संस्कारों का उद्बोधन ही स्मृति के प्रति हेतु नहीं है, अपितु आवरण, क्षयोपशम के सदृश्य दर्शनादि सामग्री के उपलब्ध होने पर स्मरण रूप ज्ञान का उदय होता है। प्रत्यभिज्ञा में स्मृति की अतिव्याप्ति के निवारण हेतु "संस्कार मात्र" इस पद को स्मृति के लक्षण खण्ड १८, अंक ३ (अक्टू०-दिस०, ९२) २१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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