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________________ क्रियाओं द्वारा तत्त्वों में परिवर्तन हो जाता है । ___ ऐसा संक्रमण से होता है। संक्रमण का अर्थ कोशकारों ने इस प्रकार किया है१. जाना या चलना। २. एक अवस्था से धीरे-धीरे बदलते हुए दूसरी अवस्था में पहुंचना । ३. सूर्य का एक राशि से निकलकर दूसरी में प्रवेश करना-४, घूमना, पर्यटन ।' जनेन्द्र सिद्धांत कोश के अनुसार 'जीव के परिणामों के वश से कर्म प्रकृति का बदलकर अन्य प्रकृति रूप हो जाना संक्रमण है।" 'जो प्रकृति पूर्व में बन्धी थी उसका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना संक्रमण है।" 'जिस अध्यवसाय से जीव कर्म प्रकृति का बन्ध करता है, उसकी तीव्रता के कारण वह पूवबद्ध सजातीय प्रकृति के दलिकों को बध्यमान दलिकों के साथ संक्रांत कर देता है, परिणत या पारवर्तित कर देता है-यह सक्रमण है।" ___ 'वर्तमान काल में वनस्पति-विशेषज्ञ अपने प्रयत्न विशेष से खट्टे फल देने वाले पौधे को मीठे फल देने वाले पौधे के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। निम्र जाति के बीजों को उच्च जाति के बीजों में बदल देते हैं। इसी प्रक्रिया से गुलाब की सैकड़ों जातियां पैदा की गई हैं। इसी संक्रमण प्रक्रिया को संकर प्रक्रिया कहा जाता है, जिसका अर्थ संक्रमण करना है। इसी सक्रमणीकरण की प्रक्रिया से संकर मक्का, संकर बाजरा संकर गेहूं के बीज पैदा किए गए हैं।" चिकित्सा के द्वारा शरीर के विकारग्रस्त अंग-हृदय, नेत्र आदि को हटाकर उनके स्थान पर स्वस्थ हृदय, नेत्र आदि स्थापित कर अन्धे व्यक्ति को सूझता कर देते हैं । रुग्ण हृदय को स्वस्थ हृदय बना देते हैं तथा अपच या मंदाग्नि का रोग, सिरदर्द, ज्वर, निर्बलता आदि रोगों को स्वस्थ बनाकर नीरोगी बना दिया जाता है । इससे दुहरा लाभ होता है-(१) रोग के कष्ट से बचना एवं (२) स्वस्थ अंग से शाक्त की प्राप्ति । इसी प्रकार पूर्व बन्धी हुई अशुभ कर्म प्रकृति को अपनी सजातीय शुभ कर्म प्रकृति में बदला जाता है और उसके दुःखद फल से बचा जा सकता है।" संक्रमण के भेद संक्रमण के चार प्रकार हैं'- (१) प्रकृति संक्रम, (२) स्थिति संक्रम, (३) अनुभाव सक्रम और (४) प्रदेश संक्रम । प्रकृति संक्रम में पहले बन्धी हुई प्रकृति वर्तमान में बन्धने वाली प्रकृति के रूप में बदल जाती है । इसी प्रकार स्थिति, अनुभाव और प्रदेश का परिवर्तन होता है । किन्तु 'मूल प्रकृतियां फलानुभव में परस्पर अपरिवर्तनशील हैं।' 'मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता ।१२ अर्थात् ज्ञानावरणी कभी दर्शनावरणी रूप नहीं होती। सारांश यह हुआ कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है । अर्थात् एक कर्म की उत्तर प्रकृति उसी कर्म की अन्य उत्तर प्रकृति रूप में परिणति कर सकती है ।१६ दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का संक्रम नहीं होता। इसी प्रकार सम्यक् वेदनीय भौर मिथ्यात्व वेदनीय उत्तर प्रकृतियों का भी संक्रम नहीं होता। आयुष्य की उत्तर प्रकृतियों का भी परस्पर संक्रम नहीं होता। उदाहरण स्वरूप २०८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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