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दिव्यतरुः सुरपुष्पवृष्टि दुन्दुभिरासनयोजनघोषौ । आतपवारणचामरयुग्मे यस्य विभाति च मण्डलतेजः ।।
-जैन शान्तिपाठ एक दिगम्बर जैन श्लोक से तुलनीय
अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासनञ्च ।
भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सरप्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥" इन अष्टमहाप्रातिहार्यों में गजों को कोई स्थान नहीं मिला है ।
गुप्तकाल के पश्चात् जैन धर्म तथा जैन प्रतिमालक्षण में व्यापक विकास हुआ । ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्मों में पनपे तांत्रिक प्रभाव से जैन धर्म भी बच नहीं पाया । उन्हीं के प्रभाव से जैन धर्म के कर्मकाण्ड भी अधिक विस्तृत और जटिल होते गए । इस तथ्य की पुष्टि प्रतिष्ठासारोद्धार (दिगम्बर) तथा आचारदिनकर (श्वेताम्बर) से हो जाती है ।२४
जैन प्रतिमा-लक्षण के अध्ययन के लिए जैन पुराण तथा शिल्प ग्रन्थ जैसे मानसार, अपराजितपृच्छा, देवतामूर्तिप्रकरण, रूपमण्डन और ठक्कर फेरु कृत वास्तुसार आदि उल्लेखनीय और महत्त्वपूर्ण हैं। इन ग्रन्थों के अनुसार जैन प्रतिमा के परिकर में श्रीवत्स लांछन के अतिरिक्त यक्ष-यक्षी, शासनदेवता, छत्रावली, दुन्दुमिवादक, गज पादपीठ में धर्मचक्र और उसके अगल-बगल हरिण अथवा सिंह के अंकन का विधान सुनिश्चित किया गया था।
जैन तीर्थंकरों के परिकर में गजों का साक्ष्य मानसार तथा रूपमण्डन में प्राप्त होता है। छठी शताब्दी ई० में रचित ब्राह्मण वास्तुविद्या का शिल्पग्रन्थ मानसार अपने एक अध्याय में जैन प्रतिमा-लक्षण का विवरण देता है। उसमें कहा गया है कि तीर्थंकर की खड़ी अथवा बैठी प्रतिमा को आसन पर स्थित दिखाया जाना चाहिए । प्रतिमा के शीर्ष पर एक मेहराब, मकरतोरण तथा उसके ऊपर कल्पतरु, गज और अन्य आकृतियां बनाई जानी चाहिए ।२५ संभवतः जैन तीर्थंकर-प्रतिमा के परिकर में गजों का यह प्राचीनतम साक्ष्य है ।
१५वीं शताब्दी ई० के रूपमण्डन में जिन-मूर्ति का विस्तृत वर्णन है। इसमें कहा गया है कि तीथंकर की तिहरी छत्रावली के संसर्ग में तीन रथिकाएं, अशोकद्रुम, दिव्य दुन्दुभिवादक और गज तथा आसन के संसर्ग में देवाकृतियां, यक्ष-यक्षी, धर्मचक्र और सिंहों की आकृतियां होनी चाहिए
क्षत्रत्रय जिनस्यैव रथिकाभिस्त्रिभियंता ॥ अशोकदुमातपत्रौश्च देवदुन्दुभिर्वादकैः । सिंहासनमसुराद्यौ गजसिंहः विभूषिताः ॥ मध्ये च धर्मचक्रं च तत्पार्श्वयोश्च यक्षिणी । द्वितालविस्तराः कार्या बहिः परिकरस्य तु ॥"
-६.३३-३५
खण्ड १८, अंक ३ (अक्टू०-दिस०, ९२)
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