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होता है और हिरण्याण्ड से ब्रह्मांड निर्माण बाद विराट् रूप में अभिव्यक्त होता है । ब्रह्म की यह तीनों अवस्थाएं ही सूर्योदय की अव्यक्तावस्था. उदयकालीन रक्तवर्णता और मध्याह्नकालीन उसके भ्राजमान रूप में परिलक्षित होती रहती हैं । दूसरे शब्दों में प्रतीकात्मक सृष्टि विद्या में ओंकार के यही त्रिपाद हैं । इसे एकाकार करें तो यह ब्रह्म के चतुर्मुख अथवा चतुष्पाद बनते हैं जो अन्यत्र स्वस्तिक रूप में व्याख्यायित हैं । सूर्य के दक्षिण- वाम आवर्त रूप मेंउसे ही दायें-बायें अभिमुख बनाकर मांगलिक कर्म किए जाते हैं ।
३. वास्तव में बाइबिल की ६ दिनों की सृष्टि, बौद्धों के पांच स्कन्ध, जैन जगत् के षट् द्रव्यों का परिणमन, पुराणों का सर्ग-विधान और विकास का आधुनिक अध्ययन - सभी सृष्टि विद्या के अलग-अलग परन्तु परस्परोपजीव्य सोपान हैं । उन्हें पृथक्पृथक् न मानकर एक दूसरे के पूरक रूप में अध्ययन करने की आवश्यकता है । उदाहरण के रूप में पुराण कहते हैं
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कृतं त्रेता द्वापरंच कलिश्चेति चतुर्युगम् । चत्वारि भारते वर्षे युगानि मुनयो विदुः ॥ कृतं त्रेता द्वापरंच युगादिः कलिना सह । परिवर्तमानैस्तैरेव भ्रममाणेषु चक्रवत् ॥
कि कृत, त्रेता, द्वापर, कलि-ये चार युग भारत ही होते हैं और चक्रवत् भ्रममाण रहते हैं । जैन वाङ्मय में ये ही छह भागों में विभक्त हो गए और उत्सर्पिणीअवसर्पिणी क्रम से १२ आरों वाला चक्र बन गए; किन्तु उनका आनुक्रमिक परिमाण नहीं बदला । जैसे कृत, त्रेता, द्वापर क्रमशः कम अवधि होकर ४+३+२=९ अर्थात् नब्वे प्रतिशत वर्षों के तुल्य हैं; वैसे ही सुषमा, सुषमा- सुषमा, सुषमा - दुषमा के दोनों भागों का कालमान भी लगभग इतना प्रतिशत ही हो जाता है । यही नहीं उत्सर्पिणीअवसर्पिणी युगअवस्थाओं का विष्णुपुराण, आर्यसिद्धांत और काश्यप संहिता में युगाध के रूप में उल्लेख भी प्राप्त होता है ।
४. जैन मान्यतानुसार चार चन्द्र और चार सूर्य हैं । वेद संहिताओं में भी दो सूर्य, दो चन्द्रमाओं का उल्लेख है । इस सम्बन्ध में रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ टेकनोलोजी, स्टॉक होम" और " यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया, सेनिडियागो' के प्रयोगों से दूसरे चन्द्रमा - टोरो का पता चला है जो पृथिवी की १६ वर्षों में एक परिक्रमा पूरी करता है । ऐसे ही अमेरिका द्वारा प्रक्षेपित पायोनियर - १० ने बृहस्पति के सम्बन्ध में जो सूचनाएं भेजी हैं । उन्हें अध्ययन करने के बाद अमेरिकन खगोल शास्त्री उसे सूर्य का छोटा भाई मानने लगे हैं । "सोवियत विज्ञान अकादमी" के प्रो० ई० एम० द्राविकोवस्की ने तो स्पष्ट कह दिया है कि सौर मण्डल का पहला केन्द्र बृहस्पति ही था । " रीडर्स डाइजेस्ट लाइब्रेरी ऑफ मॉडनं नालेज" में भी जुपीटर (बृहस्पति) को स्वयं की ऊर्जा एवं प्रकाश उत्पन्न करने की क्षमता के आधार पर सूर्य का साथी कहा जाता है । इस सम्बन्ध में "प्राच्यविद्या संस्था, मास्को" के अध्यक्ष प्रो० एल० डी० रीव्रकोव ने भी एक नई जानकारी दी है कि सोवियत संघ के नितांत उत्तरी क्षेत्र ( आर्कटिक क्षेत्र) में
खंड १८, अंक ३ (अक्टू० - दिस०, ९२ )
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