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________________ अमूर्त-मूर्त रूपक का सौन्दर्य आस्वाद्य है : हो सन्तां ! उमड्यो दुर्वार जिज्ञासा रो ज्वार हो ॥२॥ गीत ५५ में अनुशासण को 'ज्योतिर्मय-चिन्मय दीप' कहा गया है। अन्य उदाहरण भिक्खू-दृष्टान्त तो हियड़े रो हार हो ॥७॥ प्रगट्यो कोइ एक नयो उद्योतकार हो ॥७२॥ श्रद्धा-क्यारी ॥७४॥ एक सुन्दर रूपक धम्मगिरी री पुण्य तलेटी तपस्वनी सरिता-चर में, करै चरम संस्कार स्वांम रो, ओजस्वी ऊंचे स्वर में, हो सन्ता ! धरणी-अम्बर में जय-जय की धुंकार हो ॥१२॥ यहां धर्म को पर्वत और तपस्या को सरिता कहा गया है। एक स्थल पर कालूगणी को करुणा की इकलौती मूरत के रूप में चित्रित किया गया है : करुणा री इकलौती मूरत, कालू काया जलधौती ॥११३॥ गीत संख्या १२२ में विश्व भारती को कामधेनु कहा गया है । उदात्त 'उदातः वस्तुनः, सम्पत्' अर्थात् जहां वस्तु या व्यक्ति का समृद्धि-योग का वर्णन हो उसे उदात्त अलंकार कहते हैं। तेरा० प्र० में अनेक स्थलों पर इसका प्रयोग मिलता है : 'बालूडो-भोक्खण' को उत्कृष्टता-गीत संख्या ॥४॥ अन्य उदाहरण भिक्ख स्टान्त तो हियड़े रो हार हो ॥७॥ अपर्ण जुग रा सर्वोत्तम सिरजणहार हो ॥७॥ इसके अतिरिक्त गीत संख्या १०२, १०३, १०४, ११३, ११४ आदि में उदात्त अलंकार का सुन्दर निरूपण हुमा है । परिकर साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग परिकर अलंकार है। विवेच्य गीत में अनेक स्थलों पर इसका उदाहरण प्राप्त है । आचार्य भिक्षु के लिए अनेक साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग द्रष्टव्य है चर्चावादी कुशल-प्रशासक....."||७२।। गीत संख्या १०७ में मघवागणी के लिए अनेक सुन्दर विशेषणों का प्रयोग हुआ है : निर्मल निर्मायी निश्छल निरहंकार हो । खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू० -दिस०, ९२) २७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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