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हो सन्ता ! होग्यो भीखण रो बेड़ो अब तो पार हो ॥१०॥ हो सन्तां खुलग्यो अन्तः स्फुरणा रो अभिनव द्वार हो ।। १६ ।। हो सन्तां ! निर्मल निर्मायी निश्चल निरहंकार हो ॥१०७॥ भगिनी- भाई दोनूं पाई कला सत्य संधान की, आत्मविजेता नव-नचिकेता वीतराग री वानगी,
हो सन्तो ! जुग रा अजातशत्रु मघवा जगतार हो ||१०८ ॥ विवेच्य गीत में सुन्दर श्रुतिमधुर शब्दों का संचयन समाहित है। शुद्ध हृदय धरातल से निःसृत शब्द- समुदाय तो उत्कृष्ट होंगे ही :
ससुराल सहचरी सौभागण सुगनी बाई | जागी जागरणा जाण्यो जग निस्सार हो ॥ दीक्षा में शिक्षा में, समय-समीक्षा में ॥
गीतकार इतना तन्मय हो जाता है कि वह अपने और उपास्य या प्रेमी के व्यक्तित्व में कोई अन्तर नहीं कर पाता । गीतकार का स्वयं का व्यक्तित्व ही कभीकभी गीत के माध्यम से ध्वनित होने लगता है- लक्ष्य उपजीव्य के व्यक्तित्व का ही निरूपण होता है ।
तेरापंथ - प्रबोध का अधोविन्यस्त पद्य - - जो वस्तुतः गुरु भीखण के लिए समर्पित है, क्या गीतकार तुलसी के व्यक्तित्व पर प्रकाश नहीं डालता ? चर्चावादी कुशल प्रशासक, मीमांसक संगायक हा, पुरुष - परीक्षक और समीक्षक नव्य नीति-निर्णायक हा, हो सन्तां ! 'प्रगट्यो कोइ एक नया उद्योतकार' हो ||७८ ॥
गीत में रस का साम्राज्य होता है । 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्', 'रसो व सः',
'रस एव आनन्द:', आदि साधूक्तियां गीत में पूर्णतया संगठित होती हैं । विवेच्य गीत में श्रद्धा-भक्ति रस की शान्त सलिला जो 'श्रद्धा स्वीकारो तेरापन्थ रा अधिदेवता' रूप पर्वत श्रृंखला से निःसृत होकर सम्पूर्ण तेरापंथ- प्रबोध की रम्य अरण्याणी में उपचित होती हुई । 'अठहत्तर वय आज तुलसी - गुरु करुणा तरुण' तक अविछिन्न रूप से प्रवाहित है । जो सौगन्धी आस्था के कुसुम 'म्हारी आस्था अपरम्पार हो' से निःसृत हुई थी उसकी सौरभदार- सुषमा अन्त तक व्याप्त है । इसमें वीर, भयानक आदि रसों का आस्वादन भी होता है । मुख्यतः प्रतिपाद्य स्वामी भीखण त्याग-वीर या तप-वीर के श्रेष्ठ निदर्शन हैं । वे घोर परिषहों के बीच वैसे अडोल रहते हैं जैसे संग्राम में वीरयोद्धा । बाह्य शत्रुओं को जीतना तो सरल है, लेकिन कोई आभ्यन्तर शत्रुओं - काम क्रोधादि को जीते तभी उसकी वीरता अक्षुण्ण रह सकती है। भीखण स्वामी बाह्य आभ्यन्तर दोनों शत्रुओं के जेता थे । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं : -पद्य संख्या २५,२६,३६,४०,४२,४३,४९ आदि । पांचवें गीत में श्रृंगार रस की झलक मिलती है ।
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कम शब्दों में ही वर्णनीय का वर्णन कर देना गीतकार का वैशिष्ट्य होता है । विवेच्य गीत के एक-एक पद्यों में ही जयाचार्य, मघवागणी एवं डालिम के सम्पूर्ण
खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू० - दिस०,
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