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________________ तेरापन्थ का राजस्थानी साहित्य (२) - मुनि सुखलाल आचार्य भिक्षु के बाद तेरापंथ की साहित्य-परम्परा को उज्जीवित रखने वाले आचार्यों में पहला नाम चतुर्थ आचार्य जयाचार्य का है। उनके साहित्य-लेखन की भी अनेक विधाएं हैं। संस्मरण साहित्य की दृष्टि से जहां 'भिखु दृष्टांत' राजस्थानी का प्रथम कोटि का ग्रन्थ है वहां परिमाण की दृष्टि से 'भगवती की जोड़' संभवतः राजस्थानी का सर्वतोबृहद् ग्रन्थ है । अकेली भगवती की जोड़ का पद्य-परिमाण ४० हजार है। जयाचार्य भी आचार्य भिक्षु की ही तरह एक सहज कवि थे। दिमाग को कुचरकुचर कर लिखने का उनका स्वभाव नहीं था । उनकी लेखनी अजस्र धाराप्रवाह रूप में चलती रहती थी। उनकी पद्य रचनाएं भी एक प्रकार से आशु कविताएं हैं । वे पद्य बोलते जाते थे और कुछ लोग बिना दोहराए उन्हें निरंतर लिखते चले जाते थे। उनके भक्तिगीत तथा अध्यात्म-पद बहुत ही भाव पूर्ण हैं। मानस-चित्रण के साथ-साथ प्रकृति-चित्रण में भी वे एक बेजोड़ कवि थे। उनकी अनुवाद क्षमता तो अप्रतिम थी। संस्कृत-व्याकरण तथा दर्शन जैसे दुरूह विषयों को भी पद्य में बांध कर उन्होंने अपनी अपार मेधा का परिचय दिया है । आत्म-प्रबोध के रूप में लिखी गई उनकी कविताएं भी अनुपम है । उनका कथा रत्न कोष तो न केवल एक आकर ग्रन्थ ही है अपितु राजस्थानी कथा-साहित्य का अक्षय खजाना होने के साथ-साथ भाषा विकास की दृष्टि से भी एक अमूल्य कृति है । उनके अकेले साहित्य पर कई लोग अपने शोध-प्रबन्ध लिख सकते हैं । श्रद्धा और तर्क का उनके साहित्य में अद्भुत संमिश्रण है। उनके साढ़े तीन लाख पद्य-गरिमाण साहित्य का वर्गीकरण इस प्रकार किया सकता है। आगम-भाष्य १. भगवती की जोड़ ७. पन्नवणा री जोड़ २. उत्तराध्ययन की जोड़ ८. चौरासी आगमाधिकार ३. आचारांग रो टब्बो ६. ज्ञाता री जोड़ ४. आचारांग री जोड़ १०. निशीथ री हुंडी ५. निशीथ री जोड़ ११. वृहकल्प री हुंडी ६. अनुयोग द्वार री जोड़ १२. व्यवहार री हुंडी १३. भगवती री खण्ड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, ६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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