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________________ पर आच्छादित संस्कृत भाषा के पिहित पिधानों को अनावृत्त करती है। वास्तव में 'प्रकृतिः संस्कृतं तत्रभवं प्राकृतम्'--कहना ठीक नहीं है। 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध प्राकृतम्' अथवा 'प्रकृतीनां साधारण जनानामिदं प्राकृतम्'-कहना ही ठीक है । नमि साधु (११वीं सदी) ने ठीक लिखा है-'सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहित संस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्'-अर्थात् व्याकरण आदि संस्कार से निरपेक्ष प्राकृत समस्त जगत् के प्राणियों की भाषा है। भगवान् महावीर ने अर्द्धमागधी में धर्मोपदेश किया जो श्रुत परंपरा में संरक्षित होकर महावीर-निर्वाण बाद ९८० में लेखबद्ध हुआ। यह उपदेश-भाषा अर्द्धमागधी ही “आरिस वयणो, सिद्ध देवाणं अद्ध मागहावाणी" कही गई। समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, औपपातिक और प्रज्ञापना में भी इसे अर्द्धमागधी कहा गया है किन्तु स्थानांग, अनुयोग द्वार आदि में ऋषि भाषिता और हेमचन्द्र प्रभृति द्वारा आर्ष भाषा कह दिया गया है। समवायांग में एक संदर्भ इस प्रकार है-'भगवं च णं अद्धमागहीए भाषाए धम्म आइक्खए । सा वियणं अर्द्ध मागही भासमासिज्जमाणी तेसि सवेंसि आरियमनारियाणं दुप्पयचउप्पयमिय पसु पक्खि सरिसिवाणं अप्पप्पणो हिय सिव सुहदायभास त्ताइ परिणमइ”–कि भगवान महावीर अर्द्धमागधी में उपदेश देते थे जो शान्ति, आनन्द और सुखदायिनी भाषा रूप में आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृप-सभी की अपनी भाषा बन जाती थी। . महाभारत (१७.४८) में सात भाषाएं क्रमशः मागधी, अर्द्ध मागधी, अवन्ती, प्राच्य, शौरसेनी, वाह्रीका और दाक्षिणात्या कहीं हैं। यह भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध के पूर्व भारतीय भाषाओं की स्थिति-परिस्थिति है। मुद्राराक्षस में जीवसिद्धि और प्रबोध चन्द्रोदय में क्षपणक मागधी में बोलते हैं । अश्वघोष के बौद्ध-नाटक के जो त्रुटित अंश सेन्ट्रल एशिया में मिले हैं, उनमें भी लूडर्स ने अर्द्धमागधी के प्रयोग पाये हैं। प्राचीन मागधी में श, ष, स के लिये तालव्य शकार का ही प्रयोग था जो जोगीमारा अभिलेख में दीख पड़ता है-शुतनुक नाम देवदशिकिय तं कमयिथ बलन शेये देवदिने नाम लुप दखे-। अश्वघोष के नाटकों में दुष्ट नामक पात्र की भाषा भी मागधी है जो केवल 'शकार' का प्रयोग करता है । इस प्रकार दन्ती सकार का प्रयोग बाद का है जो अर्द्धमागधी और अशोक के लेखों में मिलता है। वास्तव में महाराष्ट्री का अभ्युदय, जिसे जर्मन विद्वानों ने जैन महाराष्ट्री, जैन सौराष्ट्री, जैन शौनसेनी,दिगंबर भाषा आदि नाम देने का प्रयास किया है और गिरनार पर्वत पर लिखी प्राकृतों से विकसित हुई शौरसेनी. जिसमें दिगंबर संप्रदाय का आम्नाय लिखा गया है-इन दोनों भाषाओं के साथ-साथ यकायक जैन-साहित्य में संस्कृत के व्यापक प्रवेश ने एक नया भाषा वितान बना दिया। उसे समझने की आवश्यकताहै । उसे समझे बिना जैनागमों की मूल भाषा का स्वरूप खोज पाना कठिन . लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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