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________________ " I मोह होता है । ऐसा साधक चौथी अवस्था में अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षपण (वियोजन). करता है अतः वह क्षपक होता है, इस पांचवीं स्थिति के अन्त में दर्शनमोह का क्षय हो जाता है । छठी अवस्था में चारित्र मोह का उपशम होता है अतः वह उपशमक ( चारित्रमोह) कहा जाता है, सातवीं अवस्था में चारित्रमोह उपशान्त होता है । आठवीं में उस उपशान्त चारित्र मोह का क्षपण किया जाता है अतः वह क्षपक होता है । नवीं अवस्था में चारित्र मोह क्षीण हो जाता है, अतः क्षीण-मोह कहा जाता है और दसवीं अवस्था में 'जिन' अवस्था प्राप्त होती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि उपास्वाति के समक्ष कर्मों के उपशम और क्षय की अवधारणा तो उपस्थिति रही होगी, किन्तु चारित्रमोह की विशुद्धि के प्रसंग में उपशम श्रेणी और क्षायिक श्रेणी से अलग-अलग आरोहण की अवधारणा विकसित नहीं हो पाई होगी । इसी प्रकार उपशम श्रेणी से किये गये आध्यात्मिक विकास से पुनः पतन के बीच की अवस्थाओं की कल्पना भी नहीं रही होगी । जब हम उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र और तत्त्वार्थभाष्य से कसायपाहुड की ओर आते हैं तो दर्शन मोह की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि, सम्यक् - मिथ्यादृष्टि ( मिश्र - मोह) और सम्यक् दृष्टि तथा चरित्र मोह की अपेक्षा से अविरत, विरताविरत और विरत की अवधारणाओं के साथ उपशम और क्षय की अवधारणाओं की उपस्थिति भी पाते हैं । इस प्रकार कसा पाहुड में सम्यक् - मिथ्या दृष्टि की अवधारणा अधिक पाते हैं । इसी क्रम में आगे मिथ्या दृष्टि, सास्वादन और अयोगी केवली की अवधारणायें जुड़ी होंगी और उपशम एवं क्षपक श्रेणी के विचार के साथ गुणस्थान का एक सुव्यवस्थित सिद्धांत सामने आया होगा । २२ इन तथ्यों को निम्न तुलनात्मक तालिका से समझा जा सकता है -- गुणस्थान की अवधारणा का क्रमिक विकास ( (१) १. तत्त्वार्थं एवं तत्त्वार्थभाष्य (३री - ४थी शती ) गुणस्थान, जीवसमास, जीवस्थान आदि शब्दों का पूर्ण अभाव कर्म विशुद्धि या आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं का चित्रण, मिथ्यात्य का अन्तर्भाव करने पर ११ अवस्थाओं का उल्लेख सास्वादन, सम्यक्, मिथ्या दृष्टि और अयोगी केवली दशा का पूर्ण अभाव Jain Education International २. कसायपाहुडसुत्त (३री - ४थी शती) गुणस्थान, जीवस्थान, जीवसमास, आदि शब्दों का अभाव, किन्तु मार्गणा शब्द पाया जाता है । कर्मविशुद्धि या आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से मिथ्यादृष्टि का उल्लेख करने पर कुल ११ अवस्थाओं का उल्लेख सास्वादन ( सासादन) और अयोगी केवली अवस्था का पूर्ण अभाव, किन्तु सम्यक् - मिध्यादृष्टि की उपस्थिति For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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