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खण्ड १८
अप्रैल-जून, १९६२
अंक १
अंक १
अनुक्रमणिका
१. संपादकीय (i) जैनागमों की भाषा का मूल स्वरूप
(ii) उत्कल के "कलिंग जिन" । २. जैन परम्परा के विकास में श्राविकाओं का योगदान ३. पंच परमेष्ठिपद और अर्हन्त तथा अरिहन्त शब्द ४. आचार्यश्री तुलसी स्तुति : ५. गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास ६. उत्तराध्ययन के दो संदर्भ ७. जैन एवं जैनेतर राजनीति में दूत ८. जैन दर्शन : स्याद्वाद पद्धति ९. अश्रुवीणा में बिम्ब योजना १०. तेरापन्थ का राजस्थानी साहित्य (२) ११. तेरापंथ का संस्कृत साहित्य : उद्भव और विकास (२) १२. षड् आस्तिक एवं बौद्ध दर्शनों में मान्य कर्मवाद से जैन
सम्मत कर्मवाद की विशिष्टता । १३. पुस्तक समीक्षा
English section 1. The doors are open to all. 2. Even impossible can take shape through non-violence. 3. The Holy Acharyas. 4. Xandrames and Sadracottus. 5. An Examination of Barhma Sutra II. 2.33
Gleanings-Educational psychology. नोट-इस अंक में प्रकाशित लेखों में व्यक्त विचार लेखकों के हैं। यह आवश्यक नहीं है
कि सम्पादक-मंडल अथवा संस्था को वे मान्य हों।
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