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तेरापंथ धर्मसंघ का अवदानआचार्य भिक्षु का राजस्थानी साहित्य
0 मुनि सुखलाल
आदमी परिस्थितियों से प्रभावित तो होता है, पर वह केवल परिस्थितियों की ही निर्मिति नहीं है । उसका अपना भी एक स्वत्व होता है। स्वत्व जितना प्रबल होता है, परिस्थितियां उसे उतना ही कम प्रभावित कर पाती हैं। स्वत्व निर्बल होता है तो परिस्थितियां उस पर हावी हो जाती हैं । साहित्य की भी यही स्थिति है। केवल परिस्थितियों को प्रतिबिम्बित करने वाला साहित्य कालजयी नहीं हो सकता। "कालजयी साहित्य वही होता है जो परिस्थितियों को अपने में पचा कर, स्वत्व बन कर बाहर आता है। एक दीर्घ अंतराल के बाद भी बुद्ध और महावीर, कृष्ण और कबीर यदि भूले नहीं जा सके हैं तो इसका एकमात्र कारण यही है कि उनकी बाणी में-साहित्य में आत्मा की सुगन्ध है। उनके साहित्य में भी परिस्थितियों के प्रतिबिम्ब हैं, पर वह उनका अपना भोगा हुआ सत्य है । यद्यपि अध्यात्म की दृष्टि से एक क्षण ऐसा आता है जब भाषा ठहर जाती है, पर ऐसे मौन के क्षणों तक पहुंचने के लिए भाषा एक माध्यम बनती है-यह भी एक सचाई है।"
यह भी सही है कि अध्यात्म की दृष्टि से भाषा का बहुत बड़ा मूल नहीं है । उसका मूल केवल अभिव्यक्ति का मूल है। जो भाषा जितनी समर्थ समृद्ध होती है, वह अनुभूति को भी उतनी ही तीव्रता से अभिव्यक्त/संवादित कर पाती है। इस बात को हम इन शब्दों में भी कह सकते हैं कि अनुभूति जब प्रबल होती है तो वह बाहर आने के लिए भाषा का दरवाजा अपने आप खोज लेती है। यदि कभी दरवाजा नहीं भी मिलता है तो वह दीवारों को तोड़/लांघ कर भी बाहर कूद आती है। इस दृष्टि से राजस्थानी भाषा का अध्ययन किया जाये तो कहा जा सकता है कि वह एक समृद्ध समर्थ भाषा है । राजस्थानी को समृद्ध/समर्थ कहने का अर्थ यह होमा कि इसके निर्माण में अनेक अनुभूतिपूर्ण व्यक्तित्वों का योगदान रहा है। इस दृष्टि से देखा जाये तो तेरापंथ धर्मसंघ में ऐसे अनेक प्रखर व्यक्तित्व हुए हैं जिन्होंने राजस्थानी भाषा का कुशल अभिसिंचन किया है । बल्कि कहा तो यह भी जा सकता है कि राजस्थानी के विकास में तेरापंथ एक उल्लेख्य मंच रहा है। न केवल परिणाम की दृष्टि से ही अपितु परिणाम/गुणवत्ता की दृष्टि से भी इस धर्मसंघ ने राजस्थानी के पालन/प्ररोहरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह अलग बात है कि अभी तक उसका महत्त्व प्रकाश में आ नहीं सका, या लाया नहीं जा सका, पर आज अबकि पूरे देश और प्रदेश में
खण्ड १७, अंक ४ (जनबरी-मार्च, ६३)
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