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________________ उसके मीठे फल भी उन्हें प्राप्त हुए। तेरापंथ के वर्तमान नौवें आचार्य श्री तुलसी के समय में तो वह वृक्ष शाखा प्रशाखाओं से और अधिक सघन हो गया। इससे उसकी शीतल छाया और स्वादिष्ट फलों का लाभ केवल तेरापंथ को ही नहीं अपितु समग्र संस्कृत वाङ् मय को प्राप्त हुआ । बीसवीं शताब्दी के जैन संस्कृत साहित्य में से यदि तेरापंथ का संस्कृत साहित्य अलग कर दिया जाए तो एक बहुत बड़ी रिक्तता की अनुभूति होगी । तेरापंथ का संस्कृत साहित्य मुख्यतः नौ भागों में विभक्त किया जा सकता है— १. व्याकरण २. दर्शन और न्याय ३. योग ४. महाकाव्य ५. खण्ड काव्य ( गद्य-पद्य ) व्याकरण ६. प्रकीर्णक काव्य ७. संगीत काव्य ८. स्तोत्र काव्य ६. नीति काव्य व्याकरणों की रचना यद्यपि बहुत प्राचीन काल से ही होती रही है किन्तु व्याकरण शास्त्र की वैज्ञानिक एवं नियमबद्ध रीति से सर्वप्रथम महर्षि पाणिनि ने रचना की । यह ई. पू. ५०० से ४०० वर्ष के बीच का काल है । पाणिनि ने अपने से पूर्व वैयाकरणों का उल्लेख किया है किन्तु उनका प्रयत्न व्यवस्थित और शृंखलाबद्ध नहीं था । पाणिनि ने अपने अष्टाध्यायी जैसे सूत्रबद्ध ग्रन्थ में जिस नियमतन्त्र की स्थापना की, उससे एक ऐसी शाब्दीय सीमा का निर्माण हुआ कि उन नियमों द्वारा सिद्ध प्रयोगों के अतिरिक्त अन्य प्रयोगों को अपभ्रष्ट घोषित कर दिया गया । पाणिनि के पश्चात् अनेक वैयाकरण हुए जिन्होंने स्पष्टता, सरलता, लघुता आदि उद्देश्यों से व्याकरण शास्त्र का विस्तार किया । इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि जब ब्राह्मणों द्वारा ज्ञान के कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में अपना एकाधिकृत प्रभुत्व स्थापित करना प्रारंभ कर दिया गया, तब जैन आचार्यों और विद्वानों को भी तद्विषयक स्वतन्त्र ग्रंथ निर्माण की प्रेरणा प्राप्त हुई । यही कारण है कि आज जैनाचार्यों के व्याकरण विषयक स्वतन्त्र तथा टीका ग्रन्थ शताधिक संख्या में उपलब्ध हैं । जैनों में सर्वप्रथम आचार्य देवनन्दी -- जिन्हें जिनेन्द्र बुद्धि या पूज्यपाद के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है— ने 'जैनेन्द्र व्याकरण' की रचना की । यह विक्रम की छठी शताब्दी का समय माना जाता है। उसके पश्चात् विक्रम की नौवीं शताब्दी में आचार्य पत्यकीर्ति ने 'शाकटायन व्याकरण' की रचना की । तदनन्तर विक्रम की बारहवीं शताब्दी में आचार्य हेमचन्द्र ने 'सिद्ध हेमशब्दानुशासन' की रचना की । इनके अतिरिक्त उस काल के जितने भी व्याकरण विषयक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं वे प्रायः इनकी टीका, वृत्ति, न्यास आदि हैं । व्याकरण रचना का यह क्रम यहीं समाप्त नहीं हो जाता । तेरापंथ धर्म संघ के विद्वान् मुनिश्री चौथमल ने विक्रम की बीसवीं शताब्दी में 'भिक्षु शब्दानुशासन' नामक महाव्याकरण की रचना करके व्याकरण रचना के क्रम को वर्तमान काल तक पहुंचा दिया । खण्ड १७, अंक ४ (जनवरी-मार्च, ε२) Jain Education International For Private & Personal Use Only २०६ www.jainelibrary.org
SR No.524569
Book TitleTulsi Prajna 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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