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________________ हुए बढ़ता है अतः बारहवें गुणस्थान में पहुंचकर तेरहवीं अवस्था में संपूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लेता है । कहने का तात्पर्य यह है कि जैन दर्शन के गुणस्थानों के सिद्धान्त को ही फॉइडवाद में संकुचित रूप से 'दमन के सिद्धांत' के रूप में दर्शाया गया है । संकुचित रूप में इसलिए कि-फ्रॉयड आदि की मनश्चिकित्साओं ने मात्र मनुष्य जाति का ही विश्लेषण किया, जब कि जैन-दर्शन संपूर्ण जीवात्मा को लेकर एवं पूर्वजन्म के कर्म संस्कारों को भी साथ लेकर चलता है। जैन-दर्शन में मन की परिभाषा देते हुए कहा गया कि—जिससे मनन किया जाय विचारा जाए उसे मन कहते हैं किन्तु जैन-दर्शन मात्र मन को ही सब कुछ नहीं मानता जैसे कि पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक आज तक भी मानते आ रहे हैं । मन से आगे की चीज है आत्मा। आत्मदर्शन भारतीय सभ्यता व संस्कृति की मौलिक विशेषता है । पाश्चात्य मनश्चिकित्सकों ने मन से आगे कार्य प्रारम्भ ही नहीं किया, हमेशा वहीं तक उलझे रहे । हम भारतीय आत्मा की ही बातें करते रहे कभी उस तक पहुंचने का प्रयत्न नहीं किया और पाश्चात्य लोग मन तक ही उलझे रहे। अगर हम इन्द्रिय, मन इत्यादि प्रारम्भिक अवस्थाओं पर विचार करे और पाश्चात्य वैज्ञानिक आत्मा, शुद्धात्मा इत्यादि अन्तिम अवस्थाओं को लेकर अध्ययन, अनुसंधान करे तो बहुत कुछ क्रान्ति मानव जीवन में हो सकती है । जहां हम प्रारम्भिक अवस्थाओं को छोड़ सीधे अन्तिम अवस्थाओं की बात करते हैं, वही वे प्रारम्भिक अवस्थाओं में ही उलझे हैं आवश्यकता है, दोनों में सामंजस्य हो और तुलनात्मक अध्ययन हो। जैन दर्शन में मन को दो भागों में विभक्त किया गया है-द्रव्य मन और भाव मन । सांसारिक क्रिया कलापों की जानकारी इन्द्रियों के माध्यम से द्रव्य मन को होती है । राग-द्वेष आदि भावों से भाव मन उनको ग्रहण कर विश्लेषण करता है । भाव मन की आसक्ति व तीव्रता के आधार पर (कषायों की तारतम्यता-अनन्तानुबन्ध, अप्रत्याख्यान व सज्ज्वलन) कर्म बन्ध होता है। जहां तक फ्रॉयडवाद के अचेतन मन का प्रश्न है उसकी तुलना हम कार्मण शरीर से कर सकते हैं। हमारे हर दमित मन वचन काय के व्यापारों का संबंध कार्मण शरीर से होता है । आज मनोविज्ञान के क्षेत्र में जितने भी शोध कार्य हो रहे हैं-वह कार्मण शरीर तक ही हो रहे हैं। जब कि जैन दर्शन के अनुसार औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर से आगे है-जीवात्मा (शुद्धात्मा) । फ्रॉयड कुछ मौलिक वृत्तियों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इन्हीं के कारण मनुष्य क्रियाशील होता है। जैसे जीने की आकांक्षा, आहार वृत्ति, पलायन आदि । जैन दर्शन में इन्हें संज्ञाएं कहा गया है । वे दस हैं-आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और ओघ संज्ञा । ये संज्ञाएं परस्पर एक दूसरे से संबंधित होती हैं। जैसे लोक संज्ञा का यूथ चारित्व, संग्रह प्रवृत्ति की परिग्रह संज्ञा, भयसंज्ञा का पलायन इत्यादि। कभी-कभी हम देखते हैं कि बिना प्रत्यक्ष कारण के हम भयभीत हो जाते हैं या क्रोधित हो उठते हैं । वास्तव में देखा जाए तो इसका अप्रत्यक्ष कारण होता है-कार्मण २०० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524569
Book TitleTulsi Prajna 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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