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बिना अपना कर्त्तव्य पूर्ण करना हैं। परपीड़क चेष्टाएं, अशुभ संकल्प, रागद्वेष स्वार्थादि से रहित होकर निष्ठापूर्वक अपना कार्य करना है। वस्तुत: मन के भाव ही कर्म की ओर प्रेरित करते हैं और शुभ भाव एवं कर्म करने से उन्नति ही होगी। इसलिए शुभ संकल्प वाले, सर्वहितकारी एवं किसी का अनिष्ट न करने वाले कार्य करणीय हैं जो शुभफलदायी होते हैं । फलासक्ति से रहित कर्म बन्धन उत्पन्न नहीं करते। जीवनाधार होने से कर्मचक्र से दूर रहना किसी प्राणि के लिए सम्भव नहीं है । प्राणी को कर्म त्याग नहीं करना है अपितु कर्मफल में आसक्ति और कर्तृत्वाभिमान का त्याग करना है । अशुभ भावनाओं का त्याग करना है ।" कर्मवाद की ऐसी सुन्दर व्याख्या करने वाले भारतीय दर्शन पर अकर्मण्यता का आरोप सतही ज्ञान का बोधक है। अद्वैत-वेदान्त जगत् के मिथ्यात्व के सिद्धान्त पर सूक्ष्म विचार करने की आवश्यकता है । वस्तुतः ब्रह्म के पारमार्थिक रूप के साथ तुलना करने पर जगत् असत्य है । व्यावहारिक दशा में संसार सर्वथा सत्य माना गया है । तत्त्वज्ञों एवं ज्ञानियों को ही जगत् के मिथ्यात्व की अनुभूति होती है, सामान्य प्राणियों को नहीं । व्यवहार के लिए उत्पत्ति, भोग और मरण वाले संसार की सत्यता को कौन अस्वीकार कर सकता है ? अद्वैत वेदान्त ने जगत् को असत्य मानकर कर्मत्याग करने की प्रेरणा नहीं दी है। ___भारतीय दर्शन पर अप्रगतिशीलता का आरोप लगाने वालों का कहना है कि भारतीय दर्शन जगत्, आत्मा, ईश्वरादि तत्वों की विवेचना करता रहता है । जिनके विषय में दार्शनिकों का मतैक्य नहीं है और न ही किसी निर्णायक सीमा पर पहुंचा जा सका है । गीता और उपनिषदों पर विचारों का आधारित होना अप्रगतिशीलता का द्योतक नहीं कहा जा सकता है। इस भौतिकता प्रधान युग में जीवन के आधार रूप विचार करना भले ही कुछ लोगों को व्यर्थ लगता हो किन्तु आत्मा, जगत्, ईश्वरादि तत्त्वों की गहनता कभी न कभी बिचारशील चित्त को अवश्य ही उद्वेलित करती है। हमारे शरीर के अन्दर कौन-सा ऐसा तत्त्व है जो सोचता है, बोलता है, अनुभव करता है ? सारे शरीर को सजीव बनाए हैं । मृत्यु क्या है ? शरीरादि का या उस चेतन तत्त्व का अन्त अथवा दोनों का वियोग । शरीरादि तो यहीं रहते हैं तो फिर वे अचेतन क्यों हो जाते हैं ? चेतन तत्त्व कहां चला जाता है ? चेतन तत्त्व की नित्यता, अनित्यता, संसार की सुव्यवस्था, मोह, अहं, राग-द्वेषादि, मृत्यु को अनिवार्य जानते हुए भी जीवन से मोह, दुःख, सुख, जीवों एवं संसार का रचयिता और नियन्ता ईश्वर नामक कोई तत्त्व
या नहीं, अनेक प्रकार की अलौकिक घटनाएं इत्यादि प्रश्न ही प्रश्न हैं। श्मशान से वैराग्य अथवा क्षणिक वैराग्य होता है किन्तु फिर वहीं सांसारिक क्रिया-कलाप चलने लगते हैं । इन अनबूझे प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास दर्शन ने किया है । जिन सच्चाईयों को दर्शन जगत् उद्घाटित करता है वे नित्य और शाश्वत हैं । ये कभी पुराने नहीं पड़ेंगे।
इस युग में भी मानव मन इन पर विचार करता है। प्राचीन काल के समान तीव्र गति से, प्रगति के अभाव में भी भारतीय दर्शन पर्याप्त प्रगति कर रहा है । आत्मादि का विभिन्न दृष्टियों से विवेचन करने में भारतीय दर्शन ने पर्याप्त मौलिकता दिखायी है। टीकाकारों ने भी अपने स्वतंत्र विचारों को प्रकट किया है । दर्शन शाश्वत सत्यों के
खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१)
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