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________________ भारतीयदर्शन की आशावादिता एवं प्रगतिशीलता डॉ० जगन्नाथ जोशी : डॉ० (श्रीमती) कमला पंत कुछ आलोचकों ने भारतीय दर्शन को निराशावादी, अकर्मण्यताजनक एवं अप्रगतिशील दर्शन की संज्ञा दी है। भारतीय आध्यात्मवाद के मूल में दुःख का निरोध एक विशिष्ट उद्देश्य के रूप में प्राप्त होता है । महात्मा बुद्ध ने जिन आर्य-सत्यों को खोजा, वे सभी दर्शन-सम्प्रदायों में मान्य हैं । वे हैं-दुःख है, दुःखसमुदाय है, दुःख निरोध है और दुःख निरोध मार्ग है। इनमें प्रथम आर्यसत्य है-दुःख । व्यास एवं विज्ञानभिक्षु चिकित्सा-शास्त्र की तरह (रोग, रोगनिदान, आरोग्य और भैषज्य) आध्यात्मशास्त्र में भी चतुर्दूह मानते हैं-दुःख, दुःखहेतु, मोक्ष एवं मोक्षोपाय ।' सांख्याचार्य के विचार में संसार निरन्तर तीन दुःखों (आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) के आघात से पीड़ित रहता है। योग दर्शन के अनुसार विचारशील व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण संसार दु:खमय है। इसलिए वह पांच प्रकार के क्लेशों या दुःखों से मुक्ति के लिए ईश्वर-प्रणिधान आदि उपाय बताता है। अन्य दर्शन भी जन्म-मरण को दुःख मानते हैं...."पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी-जठरे शयनम् ।" दुःख शाश्वत सत्य है और सर्वानुभूत भी है । जितना अधिक ज्ञान होगा उतना ही सांसारिक अनुभवों के प्रति असन्तोष होगा। जो सुख दिखाई देते हैं, वे भी परिणामतः दुःखदायी होते हैं । सुख प्राप्ति में कष्ट, सुख न मिलने एवं प्राप्त सुखों के खोने पर दुःख, सुखों के विषय में चिन्ता एवं स्मृति से दुःख इत्यादि अनेक कारणों से सुख, दुःखों को उत्पन्न करने लगते हैं । दार्शनिक दृष्टि से जन्ममरणादि दुःख हैं। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि संसार में सभी जीव किसी न किसी दुःख से दुःखी हैं । शारीरिक कष्ट, मानसिक पीड़ा, आजीविका की कठिनाई, रोग, पारिवारिक क्लेश, दैवी बाधा, सामाजिक अवमानना, मानसिक सन्ताप इत्यादि अनेक रूपों में दुःख का अस्तित्व है। शायद् ही ऐसा कोई प्राणी हो, जिसे दुःख ने कभी स्पर्श न किया हो। भारतीय दार्शनिकों ने (नामों की भिन्नता रखते हुए भी) दुख का एक ही मूल कारण माना है वह है-अज्ञान, अविद्या, माया, विवेक का अभाव, कषाय, सकाम कर्म अथवा मिथ्या ज्ञान । इसके कारण व्यक्ति दुःखमय जगत् को सुखरूप मानकर उसका उपभोग करते हैं और जन्म-मरण के पाशों में उलझ जाते हैं । इसीलिए भारतीय विचारकों ने दु:ख के कारणों, दुःख-मुक्ति के उपायों एवं मुक्ति के स्वरूप की व्याख्या की है। दुःखवाद, संसार के प्रति वैराग्य, क्षणभंगुरता, प्रपञ्च के मिथ्यात्व (ब्रह्म सत्य खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ११) १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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