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________________ (viii) अल्पबहुत्व-अर्थात् उन भावों के अल्प या बहुत्व से, जो उसी वस्तु में निहित हैं, उस वस्तु का ज्ञान होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सत्, संख्या आदि आठ प्रकार वस्तु स्वरूपनिष्ठ हैं अत: अनुगम' कहलाते हैं । अनुयोग व अनुगम द्वारा तत्त्वार्थ का अधिगम होता हैं, यह उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है. तथापि एक ही पदार्थ के अनेकों अर्थ होते हैं, उनमें से उस पदार्थ के किसी एक अंश से सम्बन्ध रखने वाले अर्थ को ही सम्पूर्ण पदार्थ का अर्थ समझ लेना अनेकान्तवाद नामक मिथ्यात्व समझा जाता है, उससे बचने का उपाय यह है कि उस पदार्थ के जितने भी अर्थ हों, उन सभी को सामने रखकर उस पदार्थ के स्वरूप (अर्थ) को स्वीकार किया जाय, जैसा कि अंधे पुरुषों और हाथी का उदाहरण प्रसिद्ध है अतः उसे जानने हेतु निक्षेपों का विधान किया गया है। तत्त्वों के न्यास अर्थात् स्थिति के चार प्रकार हैं :--'नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ।" (१) नाम (२) स्थापना (३) द्रव्य (४) भाव [१[ नाम-नाम संज्ञा को कहते हैं। संज्ञा रखने में जाति गुण आदि की कोई अपेक्षा रखना जरूरी नहीं है । जो जिसकी जैसी संज्ञा रखना चाहे, वैसी रख सकता है। किन्तु संज्ञा के द्वारा भी वस्तु के वस्तुत्व का ज्ञान होता है। इसीलिये जिस वस्तु की जो संज्ञा हो, वही संज्ञा अन्य विपरीत भाव वाली वस्तु में होने पर भी उसको उस वस्तु का तत्त्व तो स्वीकार करना पड़ता है। उदाहरणार्थ---घोड़ा जीवतत्त्व है और शतरंज का मोहरा जो अजीव तत्त्व है, उसकी भी संज्ञा घोड़ा होती है अतः शतगंज के मोहरे को भी घोड़ा स्वीकार करना ही पड़ता है। [२] स्थापना-स्थापना में भी जाति या गुण आदि की अपेक्षा रखना जरूरी नहीं है क्योंकि किसी वस्तु की कल्पना ऐसी वस्तु में करना, जिसमें उसके गुण विद्यमान न हों, स्थापना कहलाता है । संज्ञा के सदश स्थापना में भी स्थापित वस्तु में मूलवस्तु के सदृश गुण विद्यमान न होने पर भी उस वस्तुतत्त्व को स्वीकार करना ही पड़ता है । संज्ञा और स्थापना प्रायः एक ही प्रकार के होते हैं-संज्ञा, शब्द की अपेक्षा से होती है और स्थापना, द्रव्य की अपेक्षा से । अन्तर केवल इतना है कि संज्ञा जो एक बार रख दी जाती है प्रायः वही रहती है, बदली नहीं जाती और स्थापना जब चाहे की जा सकती है, जब चाहे विसर्जित की जा सकती है। [३] द्रव्य-द्रव्य शब्द का स्वरूप जैन दर्शन में अति विस्तार से बताया गया है । संक्षेप में द्रव्य को समझने हेतु उसकी परिभाषा इस प्रकार की जाती है- "गुणपर्यायवद्रव्यम्"२ अर्थात् अनादि तथा अविनाशी गुण एवं गुण से उत्पन्न होने वाला, प्रतिक्षण उत्पाद एवं व्यय करने वाला पर्याय द्रव्य होता है। कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार भी अपने उन (गुण से उत्पन्न होने वाले) सद्भाव पर्यायों को जो प्राप्त होता है तथा जो सत्ता से अनन्यभूत् है, उसे द्रव्य कहते हैं।' १. तत्त्वार्थसूत्र १.५ २. तत्त्वार्थ सूत्र ५.१७ ३. दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भाबपउजवाइं । बवियं तं मण्णते अण्णभूवं तु सत्तादो ॥ पंचास्तिकायखण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१) १३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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