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________________ के विपरीत रखा गया-वे एक सभ्य समाज का असभ्य हिस्सा थे, दूसरी ओर उन्हें "आदिम" अथवा "जंगली" लोगों से भी अलग माना गया जो ऊर्ध्व विकास के क्रम में इनसे भी निचली सीढ़ी पर थे।५२ इस प्रकार "लोक" शब्द को लेकर भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने प्रायः साम्य रखने वाले विचारों को ही अभिव्यक्त किया है । जिसके अनुसार "लोक" शब्द न केवल एक साहित्यिक विशेषण ही है अपितु समाज के एक बहुत बड़े वर्ग का वाचक बन गया है । "लोक" कभी समाज के पर्याय के रूप में स्वीकृत किया गया तो कालान्तर में समाज का एक अंग मात्र--"जनसाधारण" बन गया। समाज दो भागों में विभाजित हुआ-~~-वेदरीति प्रधान अर्थात् विशिष्ट और लोकरीति प्रधान अर्थात् सामान्य । समाज में ये वर्ग बहुत प्राचीन काल में बन गये होंगे। गीता में श्री कृष्ण ने अपनी स्थिति विशिष्ट और सामान्य के भेदक "वेद और लोक” दोनों में बताई है । साधारण जनता शिक्षादि की परम्परा से दूर होती है । इस बात का समर्थन महाभारत के इस श्लोक से भी होता है अज्ञानतिमिरान्धस्य लोकस्य तु विचेष्टतः । ज्ञानांजनशलाकाभिनेत्रोन्मीलनकारकम् ॥"५५ परवर्ती विद्वानों की परिभाषा में भी जनसामान्य असभ्यवर्ग हैं, आदिम अर्थात् प्रिमिटिब या जंगली हैं, अनपढ़ एवं ग्रामीण, गंवार हैं, शास्त्रीयता एवं पाण्डित्य से दूर, अकृत्रिम-जीवन का अभ्यस्त, परिष्कृत या सुसंस्कृत तथा तथाकथित सभ्य प्रभावों से दूर रहकर प्राचीन परम्परा के प्रवाह में जीवन यापन करने वाला है । सहज ही प्रश्न उठता है कि परम्परा के प्रवाह में जीवन यापन करने वाले को "लोक" मानें तो सभ्य एवं सुशिक्षित कहे जाने वाले उच्च-विशिष्ट समाज के लोगों में भी आदिम-मानव-परम्परा, विश्वास एवं धार्मिक अनुष्ठान के अवशेष मिलते हैं। इस स्थिति में तो समग्र समाज ही “लोक" कहा जायेगा। प्रायः यह भी देखा जाता है कि सभ्य एवं सुशिक्षित वर्ग जिन्हें अंधविश्वास मानता है उन लोक-विश्वासों व अनुष्ठानों आदि को प्रायः प्राकृतिक एवं अन्य प्रकार की संकटापन्न स्थितियों में अपनाता भी है । उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संस्कृतवाङमय में सर्वप्रथम 'लोक" शब्द से समाज के पिछड़े वर्ग का अर्थ ग्रहण किया गया, फिर उसका आदिम जाति के साथ सम्बन्ध स्थापित किया गया और उसके बाद वह कृषक एवं ग्रामीण जन समुदाय के अर्थ में प्रयुक्त किया गया। किन्तु वर्तमान में "लोक" शब्द का यह सीमित एवं एकपक्षीय अर्थ स्वीकार नहीं किया जा सकता। कृषक एवं ग्राम में रहने वाले को ही "लोक" की संज्ञा नहीं दी जा सकती। जंगली एवं गंवारू को ही लोक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि एक ओर तो ग्रामवासियों का नगरों में आवागमन हो रहा है । दूसरे नगरों में रहने वाले लोगों के बीच भी लोक-परम्परा प्रतिष्ठित होती रही है, जिनकी संख्या अब श्रमिक वर्गों के रूप में उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है ।५६ ११४ तुलसी प्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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