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________________ संस्कृत वाङ्मय में लोक-अवधारणा गोपाल शर्मा [लेखक ने लोक-शब्द की व्युत्पत्ति में भाव में घञ् प्रत्यय किया है जो कर्म में होना चाहिए। उसने लोक-शब्द की अवधारणा खोजने का प्रयास किया है। संस्कृत-साहित्य में उसके प्रचलित अर्थों का विलोडन भी किया है किन्तु अधिकांश में वह ‘मानव समाज' में सीमित हो गया है जबकि लोक-शब्द से चराचर जगत् और विश्व भी अभिप्रेत है। विश्व एक प्रहेलिका है। उस पर भारतीय वाङ्मय में पर्याप्त चिंतन हुआ है जो दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से विवेच्य है। -संपादक "लोक" शब्द की व्युत्पत्ति (लोक्यतेऽसौ लोक्न घञ् । भुवने भुवनशब्दे दृश्यम् । जने च अमरः । भावे धन ।) तीन अर्थों में हुई है।' हलायुधकोश में "लोक" शब्द का अर्थ संसार, सप्तलोक एवं प्रजा किया गया है। शब्दकोशों में "लोक" शब्द के कितने ही अर्थ मिलते हैं, जिनमें से साधारणतः दो अर्थ विशेष प्रचलित हैं । एक तो वह जिससे इहलोक, परलोक अथवा त्रिलोक का ज्ञान होता है । “लोक" का दूसरा अर्थ है जनसामान्य । इसी का हिन्दी रूप “लोग" प्रचलित है। विश्व-साहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ वेद में "लोक" शब्द संसार, स्थान' आलोक एवं स्वर्गान्तरिक्षादि' विभिन्न लोकों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । कीथ एवं मैकडोनल के अनुसार लोक “संसार" का द्योतक है । अक्सर तीन लोकों का उल्लेख हुआ है और अयं लोकः (यह लोक) का नित्य ही असौ लोकः (दूरस्थ अर्थात् दिव्यलोक) के साथ विभेद किया गया है। कभीकभी स्वयं लोक शब्द भी द्युलोक का द्योतक है, जबकि कुछ अन्य स्थलों पर अनेक प्रकार के लोकों का उल्लेख हुआ है ।" उपनिषदों के अनुसार "इहलोक' और 'परलोक' ये ही दो लोक हैं । भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम्—ये सब सप्त व्याहृतियां कहलाती हैं । पौराणिक काल में ये ही सात लोकों के आधार हुए और फिर सात पाताल मिलकर कुल चौदह लोक बने । १° बृहदारण्यकोपनिषद् एवं हरिवंशपुराण में "लोक" शब्द विभिन्न लोकों के साथ आया है। तथा इहलोक-परलोक २ एवं जन अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । स्मृतियों में "लोक" से तात्पर्य इहलोक (संसार) स्वर्गादि तीन लोकों से है । ४ आदिकाव्य रामायण एवं महाभारत में "लोक" शब्द संसार" एवं जनसामान्य अर्थात् प्रजा के अर्थ में आया है। महावैयाकरण पाणिनि ने "लोक" की सत्ता को स्वीकार किया है-"लोकसर्वलोकाट्ठञ् । १७ महाभाष्यकार पतञ्जलि ने भी लोक-प्रचलित शब्दों का उल्लेख किया और कृत्रिमाकृत्रिमन्याय की प्रवृत्ति के सन्दर्भ में "लोक" का खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१) १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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