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हमें पतंजलि के योगसूत्रों में दृष्टिगत होता है। जैन और बौद्ध परंपराओं में भी योग प्रचलित रहा किंतु पृथक् रूप में वह वहां प्रतिष्ठित नहीं हुआ। जब बौद्ध साधना कृच्छाचार में पर्यवसित हुई तो पातंजल योग और बौद्ध दृष्टि के योग से कुछ अवान्तर योग प्रक्रियाएं समुत्थित हुईं, जिनमें हठयोग बहुत प्रसिद्ध हुआ। बौद्धों ने जो अन्तर्दर्शन की प्रवृत्ति विकसित की थी, जिसका आकलन हमें 'विसुद्धि मग्ग' में मिलता है, उसका और जैन परंपरा में विकसित 'आत्मा से आत्मा को देखने की प्रक्रिया' का प्रचार हठयोग के आगे क्षीण पड़ गया था। इधर बीसवीं सदी में जब मनीषियों को अपनी प्राचीन थाती संभालने का पुनः अवसर मिला तो योग के क्षेत्र में बौद्ध 'विपश्यना' और जैन 'प्रेक्षाध्यान' की अवधारणा सामने आई। प्रेक्षाध्यान की जैन पद्धति पर आचार्य तुलसी ने वर्षों तक गंभीर शोध और प्रयोग किए । उसकी उपयोगिता पर 'तुलसी-स्कूल' के विद्वानों ने अनेक ग्रंथ लिखे । मुनि राकेशकुमार का यह कोश इसी परम्परा को आगे बढ़ाता है।
इस ग्रंथ में यद्यपि आगमकालीन योग की शब्दावली अत्यंत अल्प है तथापि उत्तरकालीन योग का समाहार भलीभांति हुआ हैं। मुनि जी ने योगविंशिका, योगदृष्टि-समुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक आदि उत्तरकालीन ग्रंथों को ही अपना आधार बनाया है।
. प्रस्तुत कोश में प्रविष्टि का क्रम इस प्रकार है-पहले पारिभाषिक शब्द, फिर उसका हिंदी में अर्थ और नीचे पादटिप्पणी। पादटिप्पणियां प्राय: विस्तृत हो गई हैं क्योंकि मूल कारिका या गाथा देकर उसका अनुवाद और व्याख्या प्रस्तुत किए गए हैं। यह स्पष्टता के लिए उचित ही है। ____मुनिजी ने शब्दों का अर्थ बहुत स्पष्ट रूप में देने का यत्न किया है। इसके लिए बीजाक्षर-अर्थ, पर्याय, बाक्यांश, वाक्य एवं वृहद् व्याख्या इन सभी प्रणालियों को अपनाया है । जैसे 'क'--आत्मा, ब्रह्म, बीजाक्षर अर्थ का सुंदर उदाहरण है। आप्टे कोश जैसे सामान्थ व्यावहारिक कोश में 'क' के १६ अर्थ दिए गए हैं, जिनमें से एक 'आत्मा' भी है। जैन-परम्परा में अन्य अर्थों को छोड़कर 'आत्मा' या 'ब्रह्म' अर्थ में (यो० मा० २६) प्रयोग हुआ है, उसे ही मुनिजी ने प्रासांगिक समझ कर ग्रहण किया है।
... जहां उन्होंने पर्याय अर्थ दिए हैं वहां स्पष्टता की कोटियां अवश्य हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं । जैसे 'कलेवर' का अर्थ उन्होंने 'काय' दिया है और 'पाणु' एवं 'भस्त्रा' का भी 'काय' दिया है। कलेवर और काय लगभग समान रूप से ज्ञात शब्द हैं। इस स्थिति में कलेवर का अर्थ अधिक ज्ञात 'शरीर या देह' देना चाहिए था। 'काय' का प्रयोग जैन योग में कायनिरोध, कायपातन, कायोत्सर्ग आदि के रूप में प्रचुर मात्रा में हुआ है अतः 'कलेवर' की अपेक्षा 'काय' को पारिभाषिक मानकर उसकी प्रविष्टि करनी चाहिए थी। 'पाणु', 'भस्त्रा' अवश्य अज्ञात या अल्पज्ञात शब्द हैं, उनका अर्थ 'काय' सर्वथा उचित ही है। अच्छा होता पादटिप्पणियों में वे पंक्तियां दे दी जातीं जिनमें 'पाणु' और 'भस्त्रा' का प्रयोग 'काय' के अर्थ में हुआ है।
तुलसी प्रज्ञा
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