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________________ किण ही श्रावक सर्व पाप पच्चक्खिया, तिण ने दीधां एकंत धर्म भाखियो जी रे। पूछणवालो वचन सुणी विस्मयपड्यो, थारी बोली रो स्वाद थे न चाखियोजी रे ॥२६॥ सूस करायां भांग पातक तेहनों, करावण वालो पाप नो सीरी थयो जी रे।। घी वहिरायो साध नैं कीड़यां मूई, बाण्यो तंतू बेची नफो ले गयो जी रे ॥३०॥ म्हाने असाध जाणो साधू क्यूं कहो नैतो देतो पेमो खेमो साह कही दियं जी रे । मनमें जाणे यांतो देवाला काढीयो, तोही पिण वेला त्याने साह कही लियेजी रे ॥३१॥ सामदासजी रा साधु पादु में पूछियो, बाईस टोला सर्व असाधू किम कह्याजी रे।। भिक्खुलेखो बतायो त्यांरा लिखत सूं, थांरा अवगुण काढे सुण खुशी थया जी रे ॥३२॥ हिंसा कियां विण धर्म न होवै सर्वथा, कोरा दाण चाबै किण ही सेकिया जी रे।। शील आदरयो दूजी परण्यो इक जणो, सुत वधाया संतां रे चेला किया जी रे ॥३३॥ बावीस टोला सर्व असाधू किम हुवै, ठंडी रोटी में के इक जीव सरधता जी रे।। केई न सरधै तेहनो झूठ लागियो, झूठा बोला साधू न हुवै सर्वथा जी रे ॥३४॥ तीन जणा रै संका सावद्यदान री, एक पुण्य एक मिश्र सरधतो जी रे।' एक पाप श्रद्धे संका मिट गयां, संयम लेसा किम मिट ए दरदतो जी रे ॥३५॥ राजा राणा साहिब पे पुकारिया, ए तो संक न मिट त्यांरी इण विधै जी रे। साधू पासै आव्यां साध लवे नहीं, विण वतायां मिथ्यात मिटे किण विधै जी रे ॥३६॥ उपदेश देव साधूजी तिण अवसरे, दूध पाणी रा जूजूवा निरणा कही धरै जी रे । विण वतायां च्यारुं तीर्थ मन तणी, ऊंधी अंवली सरधा संवली कुण कर जी रे ॥३७॥ मोटा कारण मे मैथुन सेव्या धर्म कहै, थारी बैन बेटयां पिण हाजर करी जी रे । म्हे केम करसां म्हे तो मोटाकुल मझे, बीजारी बेन बेटयां किम उगलपड़ीजी रे ॥३८॥ थांरी श्रद्धा में परपंच दीसै अति घणो, आंख में पील्यो जगत पीलो दाखिय जी रे । ताव वाला नैं सीरो लागे जहर सो, निरोग सरीरी अमृत गटका चाखियै जी रे ॥३६॥ क्षांतिविजय रुघनाथजी ने जीतिया, भिक्षु च्यार निखेवां री चरचा करी जी रे । धर्म रै हेते जीव हण्यां थी मंद बुद्धि, आचारांग वतायो मुख आगल धरी जी रे ॥४०॥ साधू थाको घाल गाड़ी मे ल्याविया, धर्म होसी तो गधे बेसाण्यांइ थावसी जी रे। असंजती नै त्याग करावो देण का, वचन सरध्यां के म्हाने भांड करावसीजी रे ॥४१॥ भेषधारी एक आयो भिक्खु देखवा, चरचा पूछो-पूछो कही रह्यो जी रे। तूं सन्नी के असन्नी न्याय पूछियां, छाती मांही मूकी री रूठो देई गयो जी रे ॥४२॥ म्हारे गुरां एक चरचा पूछी तो भणी, तेहनो जाब थाने तो आयो नहीं जी रे। भिक्खु भाख उवाहीज पाछी पूछल्यो, हूं स्यूं पूछू पोता-चेलो छु सही जी रे ॥४३।। श्रावक री अव्रत सींच्यां व्रत वध, इण लेखे तो उपवास करायां व्रत बल जी रे।। सहु टालोकर भेला मिल्यां गण हुदै, इसी बुध हुवै तो गण स्यूं क्यु टलं जी रे ॥४४॥ पाली में बावेचा विप्र लगाविया, भिक्ख परचाया फिर नै पाछ आविया जी रे। पूजजी हुकम कीधो पांच रुपयां तणो, वचन सुण नै बावेचा सीदाविया जी रे ॥४५॥ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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