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________________ सकती थीं। ___ अपने धार्मिक आचारों की कठिनता के कारण जैनश्रमण समुद्रयात्रा नहीं करते थे। पर बौद्धों की तरह जैन व्यापारी समुद्रयात्रा के प्रशंसक होते थे। जैन साहित्य में इन यात्राओं का सजीव तथा रोचक वर्णन मिलता है। आ०चू० में (प० ७०६) एक कथा आई है कि पण्डु-मथुरा के राजा पण्डुसेन की मति और सुमति नाम की दो कन्यायें जब जहाज से सुराष्ट्र को चलीं तो रास्ते में तूफान आया और यात्री उससे बचने के लिये रुद्र तथा स्कन्द की प्रार्थना करने लगे। समुद्रयात्रा के कुशलतापूर्वक समाप्त होने के लिये अनुकूल वायु का बहना आवश्यक था और निर्यामकों को समुद्री हवा के रुखों का कुशलज्ञान भी जहाजरानी के लिये बहुत आवश्यक माना जाता था। जैन साहित्य में सोलह प्रकार की समुद्री हवाओं का उल्लेख मिलता है। ज्ञाताधर्मकथा की दो कहानियों से भी प्राचीन भारतीय जहाजरानी पर काफी प्रकाश पड़ता है। एक कथा में कहा गया है कि-चम्पा नगरी में समुद्री व्यापारी रहते थे। ये व्यापारी नाव द्वारा गणिम (गिनती), घरिम (तौल), परिच्छेद (जांचने योग्य) तथा मेय (नाप) की वस्तुओं का विदेशों से व्यापार करते थे। चम्पा से यह सब माल बैलगाड़ियों पर लाद दिया जाता था। यात्रा के समय मित्रों और रिश्तेदारों का भोज होता था। व्यापारी सबसे मिल-जुलकर शुभ मुहूर्त में गंभीर नाम के बन्दर (पोयपत्तण) की यात्रा पर निकल पड़ते थे। बन्दरगाह पर पहुंच कर गाड़ियों पर से सब तरह का माल उतार कर जहाज पर चढ़ाया जाता था और उसके साथ ही खाने-पीने का भी सामान, जैसे-चावल, आटा, तेल, घी, गोरस, मीठे पानी की द्रोणियां, औषधियां तथा बीमारों के लिये पथ्य भी लाद दिये जाते थे। समय पर काम आने के लिये लकड़ी, कपड़े, अन्न, शस्त्र तथा अन्य कीमती माल भी साथ रख लिया जाता था। जहाज छूटने के समय मित्र और संबंधी शुभकामनायें और सकुशल वापिसी के लिये हार्दिक अभिलाषा भी प्रकट करते । व्यापारी वायु और समुद्र की पूजा कर मस्तूलों पर पताकायें चढ़ाते । यात्रापूर्व राजाज्ञा ले ली जाती। डांड चलाने वाले तथा खलासी रस्सियां ढीली कर देते । इस प्रकार बन्धनमुक्त होकर पाल हवा से मर जाता तथा पानी काटता जहाज आगे चल पड़ता। एक अन्य कथा में सामुद्रिक विपत्तियों का चित्रण है। एक समय एक व्यापारी समुद्रयात्रा के लिये हत्थिसीस नामक नगर से बन्दरगाह को चला। रास्ते में तूफान से जहाज क्षतिग्रस्त हो गया। घबराकर निर्यामक भौंचक्का हो गया। वह दिशा भूल गया। निर्यामक आदि सभी लोग तब देवताओं (इन्द्र, स्कन्द आदि) की प्रार्थना करने लगे। जहाज विपत्ति से उबर आया। फिर जहाज कालियद्वीप आ पहुंचा। आगे कालियद्वीप के राजा का वर्णन आता है । बहुमूल्य सामान के लेन-देन का और फिर आगे यात्रा की निरन्तरता के वर्णन मिलते हैं । ___इन कथाओं से पता चलता है कि प्राचीनकाल में भारतवर्ष में भी भीतरी तथा बाहरी व्यापार खूब जोरों से चलता था। अन्य सामान के साथ कपड़ों का व्यापार भी तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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