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________________ भारत में भी प्रचलित हुई। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार नाम शब्दों में सप्तमी एक वचन के लिए सामान्यतःए और-म्मि विभक्तियां (८-३-११) और सर्वनामों के लिए-स्सिं, म्मि और त्थ (८-३-५६) विभक्तियां हैं किन्तु इनके प्राकृत व्याकरण में-अंसि विभक्ति का उल्लेख नहीं है जो नाम और सर्वनाम दोनों में पायी जाती है। वररुचि के व्याकरण में भी ऐसा उल्लेख नहीं है। अर्धमागधी में-अंसि विभक्ति के उदाहरण हैं-लोगंसि, आचा, १-१-१-६ (भ. ज. वि.), कंसि (पिशल ४२८) किन्तु पालिव्याकरण में नाम और सर्वनाम शब्दों में सप्तमी एक वचन के लिए--स्मिं विभक्ति का उल्लेख है और साहित्य में उसका प्रयोग भी मिलता है जबकि अशोक के शिलालेखों में पश्चिम के सिवाय अन्य क्षेत्रों में सप्तमी एक वचन के लिए-सि (स्सि) विभक्ति मिलती है (मेहेण्डले प.० २८३)। __ अर्धमागधी भाषा की-अंसि विभक्ति इस तरह न तो व्याकरणों में, न पालि में और न ही अशोक के शिलालेखों में मिलती है। परन्तु ईस्वी सन् की तीसरी शताब्दी में दक्षिण प्रदेश के क्रिष्णा जिले में तेनाली तालुके के कोंडमुडि गांव से मिले राजा जय वर्मन के ताम्र-पत्र में-'अंसि' विभक्ति ‘एतसि' शब्द में पायी जाती है । इस तरह वररुचि और हेमचन्द्राचार्य ने-म्हि और---अंसि विभक्तियों का सप्तमी एकवचन के लिए उल्लेख नहीं किया है परन्तु शिलालेखों से उनके प्रचलन का अनुमोदन होता है । ऊपर के विवरण अनुसार सप्तमी एकवचन के विविध विभक्ति प्रत्ययों का विकास निम्न प्रकार से हुआ-ऐसा साहित्यक सामग्री, शिलालेखों और व्याकरणों से प्रमाणित होता है--- सार्वनामिक विभक्ति-स्मिन् : स्मिं स्मि •स्सि -- (अंसि - )म्सि म्मि स्मिं स्मि -- म्हि म्मि' स्मिं स्मि : म्हि -म्मि स्मिं स्सिं स्सि - सि पाली साहित्य में-स्मिं और-म्हि (गाइगर ७८,८२,६५) का प्रचलन रहा। व्याकरणकार मोग्गलान के अनुसार पाली में-सि प्रत्यय भी था (गाइगर ७६) । अशोक केशिलालेखों में-सि (स्सि) और-म्हि प्रत्यय मिलते हैं और तीसरी शताब्दी में दक्षिण में-अंसि प्रत्यय मिलता है। अर्धमागधी भाषा में-अंसि प्रत्यय मिलता है । लेकिन व्याकरणकार-स्सिं प्रत्यय का उल्लेख करते हैं। १. गिरनार लेख (४-१०) में इमम्हि के साथ अथम्हि और गिरनार (४-६) में धमम्हि प्रयोग मिलते हैं। गिरनार (२-१) विजितम्हि और (६-४) विनीतम्हि प्रयोग भी हैं। विनीतम्हि धौली और जौगढ (६-२) में विनीतंसि' और शाहवाजगढ़ी और मानसेहरा में 'विनितस्पि' हो गया है। -संपादक २. प्राकृत भाषा में अहम् के लिए अम्हि, अम्मि और सिम का प्रयोग (हेमचन्द्र-९-३ १०५) होता है और ये 'अस्मि' क्रियापद में से ही निकले हैं। ऐसा ही विकासम्मि विभक्ति का स्मि में से हुआ है। ७४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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