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________________ एक बार ईरान के बादशाह ने हकीम से पूछा-भोजन की मात्रा क्या होनी चाहिए ? हकीम ने बतलाया, ३६ तोला। हम जितना कम खायेंगे, उतना पाचन ठीक होकर पर्याप्त भाग का उचित परिणमन हो सकेगा। अधिक खानेवालों के मुश्किल से एक भाग का परिपाक होता है, शेष निस्सार रूप में (मल, मूत्र, स्वेद) बह जाता है । एक लेखक ने बहुत सुन्दर लिखा है कि यदि मन बूढ़ा है तो हम जवान हैं और यदि मन जवान है तो हम बूढ़े हैं। स्वस्थ जीवन के लिए प्रसन्न-मन और संतुलित भोजन ये दो बातें अनिवार्य हैं। आयुर्वेद कहता है "ये गुणाः लंघने प्रोक्ताः ते गुणाः अल्पभोजने” । उपवास से जो लाभ होता है वही लाभ अल्पाहार से भी प्राप्त होता है। विश्व में आज भी कई ऐसे देश हैं जहां भोजन से अधिक भूख है। वर्तमान शरीर-शास्त्रियों का कहना है कि उस देश के मनुष्य बहुत जल्दी बूढ़े प्रतीत होने लगते हैं जहां के मनुष्यों को पर्याप्त पौष्टिक खुराक नहीं मिलती। आयुर्वेद के अनुसार भी अति भोजन और अल्प भोजन जैसे आंतों के लिए अहितकर हैं वैसे अपौष्टिक खुराक (असंतुलित भोजन) भी रोग का कारण बनती है । जैसा-तैसा भोजन सबसे पहले हमारी उन ग्रंथियों को प्रभावित करता है, जो मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास में सहयोग करती हैं । फलतः तामसिक लोगों में कुशाग्र प्रतिभा, दृढ़ निर्णय शक्ति, स्वबोध क्षमता तथा उच्च नैतिक बल कम पाया जाता है। स्वयं भगवान् महावीर अपने शिष्यों को भोजन के बारे में सलाह देते हुए कहते हैं-तुम कभी सरस भोजन करो, कभी नीरस भोजन । सदा सरस भोजन करने से कामोत्तेजना बढ़ती है और सदा नीरस' भोजन करने से क्रोधादि वृत्तियां पनपती, उत्तेजित होती हैं। अतः दैनिक भोजन सामग्री में तली-भुनी चीजें, अति गरिष्ठ पदार्थ व अधिक वेराइटी न रहे। किसी ने ठीक ही लिखा है- स्वाद खोजने वाला स्वास्थ्य खोता है और स्वास्थ्य खोजने वाला जहां-तहां स्वाद पा लेता है । कुछ लोग अपनी धारणाओं तथा विचार-व्यवहार से बूढ़े होते हैं। समय बीततेबीतते कहने लगते हैं ; भाई हम लोग कब तक काम करते रहेंगे ? हमने तो बहुत कुछ किया है, अब जरा विश्राम करलें । इसप्रकार सोचने वाला यह प्रकट करता है कि हम दूढ़े हो रहे हैं या हो गये हैं। किन्तु कुछ सदा युवा रहते हैं। नेहरू जी ने अपनी एक वर्षगांठ पर कहा कि यदि मेरे पास मेरी आयु का कोई ठोस प्रमाण नहीं होता तो मैं शायद यह स्वीकार ही नहीं करता कि मैं ६६ साल का हो गया हूं। विदेशों में आज भी ऐसे लोग हैं जो रिटायरमेंट प्राप्त होने के बाद भी किसी नये अन्वेषण में भाग लेते हैं । मनियंत्रित भोग विषय-सुख जीवन का न्यूनतम आनन्द है। जो इस सुखलिप्सा से प्रेरित होकर जीवन के सम्पूर्ण कार्य-कलाप करते हैं, वे जीवन-रहस्य से दूर भटक जाते हैं । भारतीय संस्कृति का आदर्श भोग नहीं अपितु त्याग रहा है। प्रश्न हो सकता है, ऐसा क्यों ? इसके स्पष्टीकरण में योगाचार्य कहते हैं-जीवन का अर्थ शक्ति-क्षय नहीं बल्कि शक्ति-संचय है। जो अनियंत्रित भोगेच्छा वाला है वह पूरे अमृत घट को फोड़कर उसके खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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