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पर जिज्ञासा का क्रम आगे बढ़ता है कि प्रमा यथार्थ ज्ञान को कहते है और उसका करण भी यथार्थ ज्ञान माना जा रहा है तो एक ही में साध्य साधन भाव का व्यवहार कैसे संभव हो सकेगा ? दूसरी बात यह है कि स्वयं प्रकाशित होते हुए घट को प्रका शत करने वाला जो ज्ञान है वह हुआ तो कैसे हुआ ? जिस साधन से बह ज्ञान हुआ है उस साधन को प्रमाण कहे या नहीं ? ज्ञान को प्रमाण मानने पर इस प्रकार की विप्रतिपत्तियां उपस्थित होती हैं। इन विप्रतिपत्तियों को यहीं अनुत्तरित छोड़कर जब हम न्यायदर्शन की ओर मुड़ते है तो वहां भी यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रमा के करण को प्रमाण कहने पर प्रमाता प्रमेय आदि को भी प्रमाण क्यों न कहा जाय क्यों के प्रमोत्पत्ति में ये भी तो करण ही है । इसके उत्तर में कहा जाता है कि प्रमाता और प्रमेय के उपस्थित रहने पर भी प्रमा की उत्पत्ति नहीं होती है किन्तु इन्द्रियसन्निकर्ष होने पर अविलम्ब प्रमोत्पत्ति हो जाती है, अतः इन्द्रियसान्निकर्ष ही प्रमाग है। इस प्रकार प्रमाता और प्रमेय आदि को प्रमाण नही कहा जा सकता।
__दूसरी बात यह है कि पांच ज्ञानेन्द्रियों का अस्तित्व तो सभी मानते है । शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध का ज्ञान क्रमशः श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना तथा घ्राण से होता है । यह वात सभी को स्वसंवेद्य है । जब ये इन्द्रियां ज्ञान का साधन हैं तब इन्द्रियस न्नकर्ष को प्रमाण मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । चक्षुरिन्द्रिय से घट ज्ञान होने पर चक्षुःसन्निकर्षं को प्रमाण न मानकर ज्ञान को प्रमाण मानना किस प्रकार संगत हो सकेगा ? कहा जाता है कि जड़ इन्द्रिय सन्निकर्ष प्रमाण कैसे हो सकता है ? किन्तु चेतन के सम्पर्क से जड़ में क्रियाकारिता जब हम प्रतिदिन दैनिक व्यवहार में देखते हैं तब यह प्रश्न सर्वथा अर्थहीन हो जाता है कि जड़इन्द्रियस न्नकर्ष में प्रमाकरणत्व कैसे संभव है ? इसी बात को लक्षित कर जयन्तभट्ट 'न्यायमंजरी' में लिखते हैं
__ अव्यभिचारिणीमसंदिग्धामर्थोपलब्धिं विदधती बोषाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम् ।
भ्रमरहित, संशयरहित जो अर्थ का ज्ञान होता है उस ज्ञान को उत्पन्न करने वाली बोध और अबोध स्वरूप जो सामग्री है, वही प्रमाण है।
यहां अबोध रूप पञ्च ज्ञानेन्द्रियां प्रत्यक्ष प्रमा में करण होने से प्रमाण हैं । बोधरूप अर्थात् ज्ञानरूप करण से अनुमान, उपमान और शब्दज्ञान रूप करण अभिप्रेत हैं । अनुमान का अर्थ है परामर्श । परामर्श कहते हैं विशिष्ट वैशिष्ट्यावगाहि ज्ञान को । वह्नि की व्याप्ति से विशिष्ट धूम का वैशिष्ट्य अर्थात् संयोगेन पर्वतवृत्तित्वज्ञान ही विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि ज्ञान है। यह विशिष्टवैशिष्ट्यावगाहि ज्ञान अनुमिति नामक प्रमा का करण होने से प्रमाण है। ज्ञान क्योंकि किसी साधन से होता है, इसलिये अनुमित्यात्मकज्ञान का करण जो परामर्श नाम का ज्ञान है वह कैसे हुआ है ? इस प्रश्न का उत्तर यह समझना चाहिये कि-वह प्रत्यक्ष प्रमाण जन्य है । कारण यह है कि जब हम प्रत्यक्ष रूप से धूम को पर्वत में देखते है तब पूर्व में गृहीत व्याप्ति का स्मरण पूर्वक यह विशिष्ट-वैशिष्ट्यावगाहि ज्ञान होता है। इसी प्रकार सादृश्यज्ञान जो उपमिति का खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१)
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