SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "इन्दियमणोनिमितं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं । निययत्थुत्तिसमत्थं तं भावसुयं मई सेसं ॥ विशेषा. भा. गा. ६६ इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला श्रुतानुसारी ज्ञान जो, स्वयं में प्रतिभासित घट, पट आदि पदार्थों को दूसरों को समझाने में समर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान है । ज्ञान बिन्दु में मति-श्रुत को परिभाषित करते हुये कहा गया-“मतिज्ञानत्वं श्रुताननुसार्यनतिशयितज्ञानत्वम् अवग्रहादिक्रनवदुपयोगजन्यज्ञानत्वं वा, श्रुतं तु श्रुतानुसार्येव ।" जो श्रुतानुसारी होता है वह श्रुतज्ञान है तथा जो श्रुताननुसारी अर्थात् श्रुतानुसारी नहीं होता वह मतिज्ञान है । जब श्रुतानुसारी को श्रुतज्ञान कहा गया तो शंका करते हुए पूछा गया कि शब्दोल्लेखी श्रुतज्ञान है तो मतिज्ञान का भेद अवग्रह ही मतिज्ञान होगा। शेष ईहा आदि श्रुतज्ञान होगे क्योंकि वे भी शब्दोल्लेख युक्त हैं। इस प्रकार मति ज्ञान का लक्षण अव्याप्त दोष से दूषित होगा तथा श्रुतज्ञान का लक्षण मतिज्ञान के भेदों में चले जाने से अतिव्याप्त लक्षणाभास से दूषित है । समाधान की भाषा में आचार्यों ने कहा कि ईहा आदि साभिलाप है किन्तु सशब्द हो जाने मात्र से वह श्रुतज्ञान नहीं है। जो श्रुतानुसारी साभिलाप ज्ञान है वही श्रुतज्ञान है । धारणात्मक ज्ञान के द्वारा वाच्य-वाचक संबन्ध संयोजन से जो ज्ञान होता है वह श्रुतानुसारी है ।' अत: मतिज्ञान साभिलाप होने पर भी श्रतानुसारी न होने से श्रु तज्ञान नहीं है । अतः मति का लक्षण अव्याप्त दोष से तथा श्रत का लक्षण अतिव्याप्त दोष से दूषित नहीं है । साभिलाप अवग्रह आदि श्रुतनिश्रित मतिज्ञान है । वे श्रु तानुसारी नहीं है तथा मतिज्ञान साभिलाप एवं अनभिलाप उभय प्रकार का है, किन्तु श्रुतज्ञान तो साभिलाप ही होता है। श्रुत-निश्रित, अश्रुतनिश्रित तक मतिज्ञान है, जहां श्रुतानुसारित्व शुरू होता है वहां श्रुतज्ञान होता है । __उमास्वाति ने कहा-जहां श्रुतज्ञान है वहां मतिज्ञान नियमत: है, किन्तु जहां मति हो वहां श्रुत हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है, वहां वह वैकल्पिक है । परंतु नन्दीकार के अनुसार जहां मतिज्ञान है वहां श्रुतज्ञान निश्चित है। मति, श्रुत का अविनाभाव संबंध है-ऐसा नन्दी सूत्रकार, पूज्यपाद देवनन्दी तथा अकलंक मानते हैं। प्रश्न यह है कि यह अविनाभाव मत्युपयोग एवं श्रुतोपयोग का है अथवा उनको लब्धि का है। इस प्रश्न का समाधान स्पष्ट रूप से ऊपरी संदर्भो में उपलब्ध नहीं है परन्तु यह बहत संभव है कि लब्धि का सहभाव है, उपयोग का नहीं है, क्योंकि जैन चिन्तकों का मानना है कि दो उपयोग युगपत नहीं हो सकते तथा उमास्वाति का यह कथन कि मतिश्रुत निश्चित रूप से अनुगमन करे यह जरूरी नहीं है। यह वक्तव्य उपयोग के आधार पर हो सकता है । मत्युपयोग होने पर श्रु तोपयोग हो यह जरूरी नहीं है। अतः उमास्वाति का कथन उपयोग को लेकर है न कि लब्धि के आधार पर । अन्य आचार्यों का कथन लब्धि के आधार पर है, उपयोग के आधार पर नहीं है। मतिज्ञान एवं श्रु तज्ञान के स्वामी, काल, विषय समान हैं अत: उनमें परस्पर अभिन्नता है तथा अन्य दृष्टि से उनमें परस्पर भिन्नता भी है। मति तथा श्रत का लक्षण भिन्न है अतः वे भिन्न हैं । श्र तज्ञान मतिपूर्वक होता है जबकि मतिज्ञान श्रत१. खण्ड १६, अक १ (जून, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy