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स्याद्वाद या अनेकान्त दृष्टि*
आचार्य श्री तुलसी
समन्वय या सामंजस्य भारतीय विचारधारा का प्रमुख तत्त्व रहा है। यहां के तत्त्व-द्रष्टाओं ने किसी भी समस्या को सुलझाने में एकांतिक आग्रह को स्थान नहीं दिया। यहां अपेक्षा भेद से हर पहलू पर हर दृष्टि से विचार-विमर्श, गवेषणा और अन्वेषण की परम्परा चली। जिसका एक महत्त्व है, विशेषता है। संघर्ष, विध्वंस या विप्लव के द्वारा समस्याओं को सुलझाने का जो उपक्रम है वह वास्तविक सुलझाव नहीं, वह तो उलझाव है, क्योंकि उससे क्षणवर्ती सुलझन दीखती है, पर यह आंखों से ओझल करने जैसा नहीं है कि उलझनों की कितनी गहरी और मोटी परत उसके नीचे छिपी है । अतः यहां समन्वय, सामंजस्य व एक दूसरे को विभिन्न अपेक्षाओं से समझकर पारस्परिक समझौता-ये ही समस्याएं सुलझाने के प्रमुख आधार माने जाते रहे हैं जिसे हम जैन दार्शनिकों की भाषा में स्याद्वाद या अनेकांत दृष्टि कह सकते हैं । इसी समन्वय की नीति के आधार पर पंडित नेहरू ने जो अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त की, वह सही माने में भारतीय संस्कृति और चिन्तन का गौरव है । धार्मिक क्षेत्र के लोग विशेष रूप से संकीर्णता, निंदा एवं कटुतापूर्ण व्यवहार से सदा परे रहें ।
___ ऊंचे विचारों तथा आदर्शों के लम्बे-लम्बे गीत व मधुर गाथाएं गाने से क्या बनेगा, यदि व्यक्ति के जीवन में उन आदर्शों की छाया तक नहीं ? "सत्यं जयति नानृतम्" का घोष सचमुच बहुत मीठा है, पर वह क्या कर पायेगा यदि व्यक्ति का अन्तस्तल सत्य के प्रति आकृष्ट नहीं है ? इसलिए इन उच्च आदर्शों की व्याप्ति अपने जीवन में देखनी चाहिये । ऐसा न कर केवल लम्बी-लम्बी बातें बनाने और दूसरों को उपदेश देने में लगे रहना जो अपना कर्तव्य मानता है, वह क्यों भूल जाता है कि दुनिया इतनी बेवकूफ नहीं है, वह उसे ऐसे करते देख उसके मुंह पर थूकेगी। राष्ट्र के नेताओं, विद्वानों, कवियों, लेखकों, पत्रकारों, सार्वजनिक कार्यकर्ताओं तथा शासनाधिकारियों को चाहिए कि वे सब अपने जीवन को सत्य और अहिंसा के आदर्शों में ढाल कर संसार के समक्ष केवल कहने के रूप में नहीं बल्कि करने के रूप में एक जीवित मिसाल पेश करें।
अणुव्रत-आन्दोलन सर्व-धर्म-समन्वय का प्रतीत है। वह उन सर्व-सम्मत आदर्शों को प्रस्तुत करता है, जो मानव-मात्र के कल्याण के आदर्श हैं, लोक-जीवन को जगाने के आदर्श हैं।
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*प्रवचन डायरी, १५ जनवरी, ५६ के प्रवचन से साभार ।
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