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________________ (6) मनुस्मृति में पुन: कहा है : महर्षि चर्या द्वारा अथवा अन्य तरह से शरीर का त्याग कर शोक और भय से रहित विप्र ब्रह्मलोक में पूजित होता है ।"93 मेधातिथिभाष्य के अनुसार महर्षि-चर्या का अर्थ है--- पूर्वोक्त तप और महाप्रस्थान । “अन्यतमया" का अर्थ है नदी-प्रवेश, भृगु-प्रपतन, अग्नि प्रवेश, आहार-निवृत्ति आदि द्वारा 14 याज्ञवल्क्य (3/55) की मिताक्षरा टीका में कहा है : “जो महाप्रस्थान करने में असमर्थ हो वह भृगुपतनादि करे ।''95 मेधातिथि ने प्रश्न उठाया है-'श्रुति कहती है-अतएव स्वर्गगामी पुरुष आयु रहते मरण न करे' (तस्मादुह न पुरायुषः स्वःकामी प्रेयात्)। तब वानप्रस्थ शरीर त्याग कैसे कर सकता है। यह भी संभव नहीं कि वानप्रस्थधर्म विषयक स्मृति के अनुरोध से इस श्रुति का अर्थ-संकोच किया जा सके । अर्थात् यह कहना सम्भव नहीं कि वानप्रस्थ के अतिरिक्त अन्य पुरुष उस श्रुति के विषय हैं। वानप्रस्थ मरण कर सकता है अन्य नहीं। क्योंकि स्मति की अपेक्षा श्रुति बलवती होती है, अतः स्मृति के वचन की रक्षा के लिए श्रुति का संकोच नहीं किया जा सकता। इसके उत्तर में मेधातिथि कहते हैं : "जो व्यक्ति जरा से विशीर्ण हो गया हो, अरिष्ट दर्शन आदि से जिसे अपनी मृत्यु आसन्न दिखाई दे और मरना चाहता हो तो इसका उस श्रुति से विरोध नहीं । कारण इस श्रृ ति में शब्द है-"पुरायुष" अर्थात् आयु रहते मरण न करे । अवस्था विशेष में अर्थात् अतिशय जराग्रस्त होने पर अथवा अरिष्ट दर्शनादि के समय मरण करना अभिप्रेत न होता तो न "स्व:कामी प्रेयादिति' (स्वर्गाभिलाषी पुरुष मरण न करे) ऐसा निर्देश होता" । (7) एक अन्य स्मृति में उल्लेख हैं : "वानप्रस्थ दूराध्वान” महाप्रस्थान, अग्निप्रवेश, जल-प्रवेश अथवा गिरि पतन का अनुष्ठान करे ।"98 मनु ने अन्य विधियों का संकेत मात्र ही किया था। यहाँ उनका स्पष्टतः उल्लेख आ गया है। 93. आसां महर्षिचर्याणां त्यक्त्वान्यतमया तनुम् । वीतशोकभयो विप्रो ब्रह्मलोके महीयते ।। (6/32) 94. पूर्वोक्तानि तपांसि महाप्रस्थानं चानन्तरोक्तां महर्षिचर्यां । आसामन्यतमया नदी प्रवेशेनभृगुप्रपतनेनाग्निप्रवेशेनाहारनिवृत्त्या वा शरीरं त्यजेत् । 95. महाप्रस्थानेऽप्यशक्तौ भृगुपतनादिकं वा कुर्यात् । 96. देखिए पाद टिप्पणी संख्या 17। 97. मिताक्षरा के अनुसार वाराध्वानं पाठ है । 98. वानप्रस्थो दूराध्वानं ज्वलनाम्बुप्रवेशनं भृगुप्रपतनं वानुतिष्ठेत् । याज्ञवल्क्य 3/55 की टीका में मिताक्षरा और अपरार्क द्वारा उद्धृत । ८४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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