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reality in modern times.1
1. 'स्यात्' का अर्थ अपेक्षा कसे ? क्या यह विधिलिङ्ग का प्रयोग नहीं है ?
___ 'अस्तिवीरा वसुन्धरा' में 'अस्ति' जैसे निपात् है वैसे ही स्याद्वाद में 'स्यात्' शब्द निपात है । यह विधिलिंग का प्रयोग नहीं है। यह अनेक अर्थों का द्योतक है। उनमें एक अर्थ अपेक्षा भी है।
2. चेतन भी अनन्तधर्मा और अचेतन भी अनन्तधर्मा फिर दोनों में अन्तर क्या है ? 'सर्वं सर्वात्मकं' तो हो ही गया।
धर्म दो प्रकार के होते हैं—सामान्य और विशेष । विशेष धर्म के द्वारा द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित होता है। चैतन्य एक विशेष धर्म है । वह चेतन में ही है, अचेतन में नहीं । चैतन्य की अपेक्षा से चेतन और अचेतन में अत्यन्तताभाव है। इसलिए चेतन अचेतन से और अचेतन चेतन से स्वतंत्र द्रव्य है । जो द्रव्य है वह अनन्तधर्मा है, फिर भी अपनी असाधारणता के कारण उसमें 'सर्व सर्वात्मक' के दोष का प्रसंग नहीं है।
चेतन में चैतन्य की सत्ता स्वाभाविक है-पर-निरपेक्ष है। पुद्गल (अचेतन) में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये स्वाभाविक गुण हैं- पर-निरपेक्ष हैं। चेतन और पुद्गल के संयोग से होने वाले जितने धर्म या व्यंजन-पर्याय हैं, वे सब पर-सापेक्ष हैं । पर- निरपेक्ष और पर-सापेक्ष -ये दोनों पर्याय संयुक्त होकर द्रव्य को अनन्तधर्मा बनाते हैं।
3. नैयायिक आदि भी अवच्छेदक धर्म के द्वारा वस्तु के स्वरूप निश्चित करते हैं और स्याद्वाद की प्रक्रिया में भी विशेष धर्म के द्वारा वस्तु के स्वरूप का निश्चय किया जता है । तो फिर दोनों में अन्तर क्या है ? दोनों में निरपेक्षता सिद्ध होती है। स्याद्वाद में सापेक्षता होनी चाहिए।
'स्यात् अस्त्येव जीवः' चैतन्य धर्म की अपेक्षा से जीव है। इस वाक्य में चैतन्य का अस्तित्व प्रदर्शित है, वही जीव का स्वरूप नहीं है, किन्तु नास्तित्व भी उसका स्वरूप है । प्रश्न हो सकता है कि यदि पराश्रित नास्तित्व जीव का स्वरूप हो तो अजीव में जो रूप आदि हैं उसे भी जीव का स्वरूप मानना होगा । इसका उत्तर स्पष्ट है। अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों वस्तु के स्वरूप हैं, यह प्रमाण सिद्ध
1. पी० सी० महलनोबिस का पूरा लेख-The Foundations of Statistics ___ डाइलेक्टिका, भाग 8, नं. 2, 15 जून 1954-स्वीट्जरलैन्ड में प्रकाशित है।
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तुलसी प्रज्ञा
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