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________________ प्रकृति और पुरुष में भेद-विज्ञान नहीं होता, जब तक पुरुष यह नहीं समझता है कि मैं प्रकृति से सर्वथा भिन्न हूं, तभी तक संसार की स्थिति है । प्रकृति और पुरुष में भेदविज्ञान होते ही पुरुष प्रकृति के संसर्गजन्य आध्यात्मिक आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीनों प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। यही मुक्ति है वास्तव में बन्ध और मोक्ष प्रकृति के ही धर्म हैं, पुरुष के नहीं। इसीलिए ईश्वर कृष्ण ने कहा हैं कि पुरुष न तो बन्ध का अनुभव करता है, न मोक्ष का, और न संसार का, किन्तु प्रकृति ही बन्ध, मोक्ष और संसार का अनुभव करती है । पुरुष की मुक्ति के लिए ही प्रकृति का समस्त व्यापार होता है । जिस प्रकार अचेतन दूध की प्रवृत्ति बछड़े की वृद्धि के लिए होती है उसी प्रकार अचेतन प्रधान की प्रवृत्ति भी पुरुष के मोक्ष के लिए होती है। जिस प्रकार उत्सुकता या इच्छा की निवृत्ति के लिए पुरुष लौकिक क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है उसी प्रकार प्रधान तत्त्व पुरुष के मोक्ष के लिए प्रवृत्ति करता है। प्रकृति उस नर्तकी के समान है जो रंगस्थल में उपस्थित दर्शकों के सामने अपनी कला को दिखलाकर रंगस्थल से दूर हट जाती है। इसी प्रकार प्रकृति भी पुरुष को अपना व्यापार दिखलाकर पुरुष के सामने से हट जाती है । वास्तव में प्रकृति से सुकुमारतर अन्य कोई दूसरा नहीं है । प्रकृति इतनी लज्जाशील है कि एकबार पुरुष के द्वारा देखे जाने पर पुन: पुरुष के सामने नहीं आती है । अर्थात् पुरुष से फिर संसर्ग नहीं करती हैं। प्रकृति को देख लेने पर पुरुष उसकी उपेक्षा करने लगता है तथा पुरुष के द्वारा देखे जाने पर प्रकृति पुरुष के प्रति अपने व्यापार से विरक्त हो जाती है । उस अवस्था में दोनों का संयोग होने पर भी सृष्टि का कोई प्रयोजन न रहने से सृष्टि नहीं होती है । अत: प्रकृति और पुरुष के भेदविज्ञान का नाम ही मोक्ष है। सांख्य दर्शन की एक विशेषता यह है कि यहां ज्ञान और चैतन्य में भेद माना गया है । ज्ञान पुरुष का धर्म या गुण नहीं है किन्तु प्रकृति का कार्य है । पुरुष का 1. तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ।। सांख्य का. 62 वत्सविवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य । पुरुष-विमोक्ष-निमित्तं तथा प्रवृत्ति: प्रधानस्य ॥ सांख्य का. 57 औत्सुक्यनिवृत्यर्थं यथा क्रियासु प्रवर्तते लोकः । पुरुषस्य विमोक्षार्थं प्रवर्तते तद्वदव्यक्तम् ॥ सांख्य का. 58 रङ्गस्य दर्शयित्वा विनिवर्तते नर्तकी यथानृत्यात् । पुरुषस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः । सांख्य का. 59 5. प्रकृते: सुकुमारतरं न किञ्चिदस्तीति में मतिर्भवति । या दृष्टास्मीति पुन र्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य ।। सांख्य का. 61 6. दृष्टा मयेत्युपेक्षक एको दृष्टाहमित्युपरमत्यन्या। सति संयोगेऽपि तयोः प्रयोजनं नास्ति सर्गस्य ।। सांख्यका. 65 तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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