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सम्प्रति ( वर्तमानकाल में ) जो अकृत है वह अतीत या भविष्यत्काल में कैसे कृत हो सकती है ? (स्वोपज्ञवृत्ति - समयस्य च निरवयवत्वादारभ्यमाण एवारब्ध इति । यदि च न सम्प्रतिसमय एव क्रियमाणमेव कृतमिति कथं तदतीतेऽनागते वा क्रियेत, तयोरभावत्वात् खरविषाणवत्) ।
(422) प्रतिक्षण कोटि कोटि कार्यं उत्पन्न हो रहे हैं। पर सत्कार्यवादी उन सभी कार्यो में अपने चिराभिलषित घट के प्रभाव को ही देखता है और घटातिरिक्त कार्यों के काल को घट में लगाता है एवं कह बैठता है 'घट का कार्यकाल दीर्घ है' ।
(423) निश्चयवादी के उपर्युक्त कथन पर व्यवहारवादी कहता है कि यदि सत् ही की उत्पत्ति होती है तो वह चरम समय में ही क्यों उत्पन्न होता है । प्रथम समय में ही उसके उत्पन्न होने में क्या बाधा है ? कुम्भकार तो घट निर्माण के लिए प्रयत्नशील है । अतः प्रथम क्षण से ही घट का उत्पन्न होना युक्तिसंगत है । पर देखने में तो यह आता है कि घट की अपेक्षा शिवक आदि उत्पन्न होने लगते हैं । ऐसी परिस्थिति में अन्त्य समय में घट उत्पन्न होगा ही - ऐसा हम कैसे मान सकते हैं? इसके उत्तर में निश्चयवादी का कहना है कि कार्य की उत्पत्ति कारण के विना संभव नहीं है । प्रतिक्षण जो भिन्न भिन्न कार्य प्रवाहबद्ध रूप से उत्पन्न हो रहे हैं उनमें पूर्व - पूर्व कार्य उत्तर- उत्तर कार्य के कारण बनते हैं । अभिलषित घटोत्पत्ति के उपान्त्य क्षण में जो कार्य उत्पन्न होता है वही अपने श्रव्यवहित उत्तरवर्ती क्षण में स्व-पर्याय से उपरत होता है एवं उसी क्षण में उत्पद्यमान घट रूपी कार्य उत्पन्न होता है । अतः यह कहना युक्तिसंगत है कि उत्पद्यमान एवं उत्पन्न एक ही क्रिया रूप हैं । अर्थात् उत्पद्यमान और उत्पन्न में किसी प्रकार का कालिक भेद नहीं है ।
(क्षण) में उत्पद्यमान वस्तुभूत नहीं । जात
निश्चयवादी का तात्पर्य यह है कि एक निरंश समय एवं उत्पन्न दोनों विद्यमान हैं। इनका भेद मात्र बौद्धिक है, या प्रजात वस्तु नहीं जन्मती । जायमान का ही जन्म होता है । कहना तो यों चाहिए कि जायमान ही जात है । यह सत्कार्यवाद पारम्परिक सत्कार्य वाद से भिन्न प्रकार का है । घट एक पर्याय है, एवं पर्याय होने के कारण वह सर्वथा नवीन है । पर वह क्रिया एवं कृत उभयरूप है । इस मन्तव्य को ही 'क्रियमाणं कृतम्' वाक्य द्वारा प्रकट किया गया है।
मलधारी हेमचन्द्र ने भी अपनी वृत्ति में इसी प्रकार का व्याख्यान स्वीकृत किया है । अत: उसका उल्लेख पृथक् रूप से करना आवश्यक नहीं है ।
9. ‘क्रियमाणं कृतम् ' प्रश्न पर भट्ट अकलंकदेव ने अपने विचार ऋजुसूत्रनय की व्याख्या के प्रसंग में तत्त्वार्थवार्तिक (1 / 33 ) में प्रस्तुत किया है। पच्यमानः पक्वः ' की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं
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पच्यमानः पक्वः । पक्वस्तु स्यात्पच्यमानः स्यादुपरतपाक इति । असदेतत्; विरोधात् । 'पच्यमान:' इति वर्तमानः 'पक्वः' इत्यतीतः । तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरो
खं. ३ अं. २-३
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