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आधुनिक युग में कर्मवाद के सिद्धान्त के साथ कई प्रश्न चिन्ह जुड़े हुए हैं । यदि व्यक्ति का कर्म ही सब कुछ है, उसे उनका फल निश्चित ही भोगना पड़ेगा तो फिर वह सत्कार्यों में क्यों और कैसे प्रवृत हो सकता है ? अतः आज के व्यक्ति ने अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के कर्मफलों के प्रति उदासीन वृत्ति अपना ली है। भविष्य में मिलने वाले फल के प्रति उसका विश्वास नहीं रहा। इसीलिए वह वर्तमान में जीना चाहता है। वर्तमान को यथासम्भव सुखी बनाने के प्रयत्न में वह है। यदि सूक्ष्मता से देखें तो सम्भवतः यह प्रवृत्ति पालि-प्राकृत की कथाओं में बहुत पहले से प्रारम्भ हो गयी थी। लौकिक पुरुषार्थ वहां प्रमुखता को प्राप्त है ।34
कर्म-सिद्धान्त के सम्बन्ध में दूसरा चिन्तन यह उभरा है कि कर्मों के फल अवश्य मिलते हैं । किंतु हजारों वर्षों में, जन्मों में नहीं, अपितु तुरन्त ही वर्तमान जीवन में ही व्यक्ति सुख-दुःख भोग लेता है । उसकी मनोवृत्तियाँ ही उसे अच्छे-बुरे कार्यों में प्रवृत्त करती हैं, जिन पर वह अपनी चेतन शक्ति द्वारा नियन्त्रण करता रहता है। ब्यक्ति के पुरुषार्थ के आगे अनन्त जन्मों की कर्मशृंखला कोई मायने नहीं रखती। अब दिनो दिन व्यक्ति की दृष्टि सूक्ष्म और वैज्ञानिक होती जा रही है। अतः वह किसी कार्य का केवल एक कारण स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। सुखःदुख अनेक कारणों के परिणाम हैं । कर्मफल उनमें से एक कारण हो सकता है। अतः अब कर्मवाद उतना भयावह नहीं रहा है और न आकर्षक ही, जितना वह प्राचीन समय में था।
वर्तमान युग के जीवन में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि एक व्यक्ति के कर्म केवल उसे ही प्रभावित नहीं करते । अपितु एक व्यक्ति के कर्मों का फल सामूहिक भोगना पड़ सकता है। जैसे किसी यान चालक की लापरवाही का परिणाम सभी यात्री भुगतते हैं। अथवा किसी जमाखोर के कारण अनेक उपभोक्ता दुःखी हो सकते हैं। इसी प्रकार सामूहिक कर्मों का फल भी व्यक्तिगत रूप से भोगना पड़ता है। देश में हरित क्रान्ति लाने वाले कुछ किसान हो सकते हैं, किन्तु उपज की समृद्धि का लाभ करोड़ों लोग उठाते है । अतः कर्म सिद्धान्त में अब व्यक्ति अकेला भोक्ता नहीं है। इसलिए बहुत आवश्यक हो गया है कि सामूहिक रूप से कर्मों में सुधार किया जाय । इन सब प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में पालि-प्राकृत साहित्य में प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त व पुरुषार्थ का विवेचन चिन्तनीय है।
खं. ३ अं. २-३
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