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________________ उसी खाई के अशुद्ध जल को अमृत सुदृश मधुर और पेय बनाकर दिखा दिया। तब राजा की समझ में आया कि व्यक्ति की सद प्रवृत्तियों के पुरुषार्थ उसके जीवन को बदल सकते हैं । अन्त में राजा और मन्त्री दोनों जैन धर्म में दीक्षित हो गये ।28 इसी ग्रन्थ में समुद्रयात्रा आदि की कथाएं भी हैं। जिनसे ज्ञात होता है कि संकट के समय भी साहसी यात्री अपना पुरुषार्थ नहीं त्यागते थे। जहाज भग्न होने पर समुद्र पार करने का भी प्रयत्न करते थे। अनेक कठिनाईयों को पार कर भी वणि पुत्र सम्पत्ति का अर्जन करते थे। उत्तराध्ययनटीका ( नेमीचन्द्र) में एक कथा है, जिसमें राजकुमार मन्त्रीपूत्र और वणिक पुत्र अपने अपने पुरुषार्थ का परीक्षण करके बतलाते हैं । 29 दशवकालिकचूर्णी में चार मित्रों की कथा में पुरुषार्थों की श्रेष्ठता सिद्ध की गयी है । 30 वसदेवहिण्डी में अर्थ और काम पुरुषार्थ की अनेक कथोपकथाए हैं। आर्थोपार्जन पर ही लौकिक सुख आधारित है। अत : इस ग्रन्थ की एक कथा में चारुदत्त दरिद्रता को दूर करने के लिए अंतिमक्षण तक पुरुषार्थ करना नहीं छोड़ता । "उच्छाहे सिरिवसति' इस सिद्धान्त का पालन करता है। 31 समराईच्चकहा में लौकिक और पारमार्थिक पुरुषार्थ की अनेक कथाएं हैं। 32 उद योतनसूरि ने कुवलयमाला में एक ओर जहाँ कर्म फल का प्रतिपादन किया है, वहाँ चंडसोम आदि की कथाओं द्वारा यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पापी से पापी व्यक्ति भी यदि सद्गति में लग जाए तो वह सुख-समृद्धि के साथ जीवन के अन्तिम लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकता है । मायादत्त की कथा में कहा गया है कि लोक में धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों में से जिसके एक भी नहीं है उसका जीवन जड़वत् है । अतः अर्थ का उपार्जन करो जिससे शेष पुरुषार्थों की सिद्धि हो (कुव. 58. 13-15)। सागरदत्त की कथा से ज्ञात होता है कि बाप-दादाओं की सम्पत्ति से परोपकार करना व्यर्थ है। जो अपने पुरुषार्थ से अर्जित घन का दान करता है वही प्रशंसा का पात्र है, बाकी सब चोर हैं जो देई धणं दुह-सय-समज्जियं अत्तणो भुय-बलेण । सो किर पसंसणिज्जो इयरो चोरो विय वरानो i। कुब0 103-23 ॥ इसी तरह इस ग्रन्थ में धनदेव की कथा है। वह अपने मित्र भद्रश्रेष्ठी को प्रेरणा देकर व्यापार करने के लिए रत्नदीप ले जाना चाहता है । भद्रश्रष्ठी इसलिए वहाँ नहीं जाना चाहता क्योंकि वह सात बार जहाज भग्न हो जाने से निराश हो चुका था । तब धनदत्त उसे समझाता है कि "पुरुषार्थ-हीन होने से तो लक्ष्मी विष्णु" को भी छोड़ देती है और जो पुरुषार्थी होता है उसी पर वह दृष्टिपात करती हैं । अतः तुम पुनः साहस करो। व्यक्ति के लगातार प्रयत्न करने पर ही भाग्य को बदला जा सकता है। ख. ३ अं. २-३ १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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