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________________ सोमशर्म तथा पुत्री का सोमशर्मा था। उनके रोहिणी नाम की एक गाय थी। दान में मिली हुई खेती करने के लिए थोड़ी-सी जमीन थी। एक बार अपनी दरिद्रता को दूर करने के लिए वसुभूति शहर जा रहा था तो उसने अपने पुत्र से कहा कि मैं साहूकारों से कुछ दान-दक्षिणा मांगकर शहर से लौटूंगा। तब तक तुम खेती की रक्षा करना । उसकी उपज और दान में मिले धन से मैं तेरी और तेरी बहिन की शादी कर दूंगा। तब तक अपनी गाय भी बछड़ा दे देगी। इस तरह हमारे संकट के दिन दूर हो जायेंगे। __ ब्राह्मण वसुभूति के शहर चले जाने पर उसका पुत्र सोमशर्म तो किसी नटी के संसर्ग से नट बन गया। अरक्षित खेती सूख गयी। सोमशर्मा पुत्री के किसी धूर्त से गर्भ रह गया और गाय का गर्भ किसी कारण से गिर गया। संयोग से ब्राह्मण को भी दक्षिणा नहीं मिली। लौटने पर जब उसने घर के समाचार जाने तो कह उठा कि हमारा भाग्य ही ऐसा है। 20 इस ग्रन्थ में इस तरहके अन्य कथानक भी हैं। आचार्य हरिभद्र ने प्राकृत की अनेक कथाएं लिखी हैं। समराइच्चकहा और धूर्ताख्यान के अतिरिक्त उपदेशपद एवं दशवैकालिकचूर्णि में भी उनकी कई कथाए कर्मवाद का प्रतिपादन करती हैं। उनमें कर्म विपाक अथवा दैवयोग से घटित होने वाले कई कथानक हैं, जिनके आगे मनुष्य की बुद्धि और शक्ति निरर्थक जान पड़ती है । 21 समराइच्चकहा दूसरे भव में सिंहकुमार की हत्या जब स्वयं उसका पुत्र आनन्द राजपद पाने के लिए करने लगता है तो सिंह कुमार सोचता है कि जैसे अनाज पक जाने पर किसान अपनी खेती काटता है वैसे ही जीव अपने किये हुए कर्मों का फल भोगता है। 22 उपदेशपद में 'पुरुषार्थ या दैव' माम की एक कथा ही हरिभद्र ने प्रस्तुत की है। 23 इसमें कर्मफल की प्रधानता है। कुवलयमालाकहा में उद्योतनसूरि ने कई प्रसंगों में कर्मों के फल भोगने की बात कही है। पांच कषायों के वशीभूत होकर जीने वाले व्यक्तियों को क्या क्या भोगना पड़ा इसका विस्तृत विवेचन लोभदेव आदि की कथाओं में इस ग्रन्थ में किया गया है । 24 राजा रत्नमुकुट की कथा में दीपशिखा और पतंगे का दृष्टान्त दिया गया है। राजा ने पतंगे को मृत्यु से बचाने के लिए बहुत प्रयत्न किये । अन्त में उसे एक संदूकची में बन्द भी कर दिया। किन्तु प्रातः काल तक उसे एक छिपकली खा ही गयी। राजा का प्रयत्न कर्म-फल के आगे व्यर्थ गया। उसने सोचा कि निपुण वैद्य रोगी की रोग से रक्षा तो कर सकते हैं किंतु पूर्वजन्मकृत कर्मों से जीव की रक्षा वे नहीं कर सकते । यथा वेज्जा करेंति किरियं प्रोसह-जीएहिं मंत-बल-जुत्ता। णेय करेंति वराया ण कयं जं पुण्य-जन्मम्मि ॥...कुव० 140.25 खं. ३ अं. २-३ १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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