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साधकों को दो प्रमुख श्रेणियां हैं-जिनकल्प और स्थविर कल्प । वि. की ११वीं शताब्दी के महान् टीकाकार शान्त्याचार्य ने लिखा है उपर्युक्त विधान जिनकल्प की साधना करने वाले मुनियों के लिए है। वे स्वयं न चिकित्सा करते हैं और न करवाते हैं। स्थविरकल्पी मुनि रोगी होने पर भी सावध चिकित्सा का आश्रय न ले।
___इसलिए जैन मुनि के लिए चिकित्सा मात्र का निषेध नहीं है, सावध अर्थात् हिंसाकारी चिकित्सा का निषेध है ।
__ भदन्त जी ने उत्तराध्ययन ६८ की गाथा में प्रयुक्त 'आयरियं विदित्ताणं' का अर्थ आर्य सत्यों का ज्ञान किया है । वे लिखते हैं-'आयरिय' आर्य-सत्यों का ही पर्याय हो सकता है, भले ही प्रयोग आलोचनात्मक हो ।
'आयरियं' शब्द के दो मुख्य संस्कृत रूपान्तर होते हैं - आचरितं और आचार्य । चरिणकार ने इसका अर्थ-आचरित किया है और हरमन जेकोबी ने इसका अर्थ आचार्य किया है। किन्तु उत्तराध्ययन के प्रशस्त टीकाकार शान्त्याचार्य ने इसका रूप 'आर्यम्' दिया है और 'आर्यम्' का अर्थ तत्त्व किया है ।" यहां तत्त्व से अभिप्राय है- दुःख, दुःखहेतु, मोक्ष और मोक्षहेतु का ज्ञान । यह बौद्ध परम्परा में सम्मत चार आर्य-सत्यों के निकट है। भदन्तजी की यह कल्पना अति कल्पना नहीं मानी जा सकती।
. भदन्तजी ने अपने लेख में लिखा है-'श्रमण परम्परा अहिंसा-मूलक थी और उसे यज्ञों का विरोध अभिप्रेत था । पशुओं की बलि का विरोध तो आसान था, क्योंकि उसमें जीव माना जाता था। तब अहिंसक यज्ञों का-पशु-बलि रहित यज्ञों का-विरोध कैसे किया जाए ? एक हो सहज तर्क था- भौतिक पदार्थों को भी सजीव मान लिया जाए। पृथ्वी सजीव है, अग्नि सजीव है, वायु सजीव हैनिर्जीव कुछ है ही नहीं।' ( पृष्ठ ६)
यह अभिमत केवल कल्पनाजनित है, तथ्यपरक नहीं। यहां मैं मुनि नथमल जी द्वारा सद्यःलिखित 'श्रमरण महावीर' ग्रन्थ के एक उद्धरण को प्रस्तुत कर रहा हूं, जिससे यह स्पष्ट उद्घोषित होता है कि उस समय जैन श्रमण हिंसक यज्ञ के स्थान पर अहिंसक यज्ञ का उपदेश कर रहे थे।
महावीर का दृष्टिकोण सर्वग्राही था। उन्होंने सत्य को अनन्त दृष्टियों से देखा। उनके अनेकान्त-कोष में दूसरों की धर्म-पद्धति का आक्षेप करने वाला एक भी शब्द नहीं है। फिर वे यज्ञ का प्रतिवाद कैसे करते ?
उनके सामने प्रतिवाद करने योग्य एक ही वस्तु थी। वह थी हिंसा । हिंसा का उन्होंने सर्वत्र प्रतिवाद किया, भले फिर वह श्रमणों में प्रचलित थी या वैदिकों में। उनकी दृष्टि में श्रमण या वैदिक होने का विशेष अर्थ नहीं था । विशेष अर्थ था अहिंसक या हिंसक होने का। उनके क्षात्र हृदय पर अहिंसा का एक-छत्र साम्राज्य था ।
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तुलसी प्रज्ञा-३
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